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________________ अध्याय 24 ] दक्षिणापथ और दक्षिण भारत मण्डप है । इनके समीप ही तीर्थंकर पद्मप्रभ, पार्श्वनाथ और वासुपूज्य के मंदिरों का समूह है जिसे त्रिकूट - बस्ती कहते हैं और जिसका अपना अर्ध-मण्डप और मुख मण्डप हैं। तीन-तीन मंदिरों के इन दोनों समूहों के सामने एक कल्याण मण्डप है जिसका उल्लेख वहाँ के अभिलेखों में (चित्र २१० ) संगीत - मण्डप के नाम से हुआ है । इस मंदिर समूह का वर्धमान मंदिर कदाचित् सबसे प्राचीन भाग है, यद्यपि अब इसका मूल रूप कुछ भी नहीं बच रहा है और अब उसके स्थान पर ईंटों से बना हुआ एक मंदिर है (चित्र २११) । प्रतीत होता है कि यह मंदिर अपने मूल रूप में पाषाण से निर्मित था और ध्वस्त हो जाने से कुछ समय पूर्व ही उसका यह रूप अस्तित्व में आया । इस मंदिर को ईंटों से बनाने से पूर्व उसका पाषाण से निर्मित अधिष्ठान तिरुपरुत्तिकुण्डम् से बीस किलोमीटर दूर करण्डै ले जाया गया जहाँ श्राचार्य कलंक की स्मृति में वह आज भी विद्यमान है । वर्धमान मंदिर और उसके आसपास के दो मंदिरों का अर्ध-मण्डप उनके मूल रूप के साथ नहीं बना और वर्तमान रूप के साथ भी नहीं, वह उन दोनों के मध्य के किसी समय बना होना चाहिए । लघु आकार के चतुष्कोणीय धर्मादेवी मंदिर के विषय में एक विशेष बात यह है कि उसमें इस समय विद्यमान मूर्ति की स्थापना तेरहवीं शताब्दी में शिव-कांची के कामाक्षी मंदिर से लाकर की गयी थी, या एक अन्य अनुश्रुति के अनुसार, नौवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य के द्वारा कामाक्षी - मंदिर में कामकोटि पीठ की स्थापना के पश्चात् इसकी स्थापना वहाँ से यहाँ की गयी थी । यद्यपि इन दोनों अनुश्रुतियों पर स्पष्ट रूप से प्रश्न उठ सकता है पर उनसे एक उल्लेखनीय तथ्य अवश्य व्यक्त होता है कि कामाक्षी मंदिर के स्थान पर मूल रूप में धर्मादेवी का जैन मंदिर था। धर्मादेवी की मूर्ति ग्रेनाइट पाषाण की है किन्तु वर्धमान और पुष्पदंत की मूर्तियाँ काष्ठ - निर्मित हैं, उनपर पालिश किया गया है और दायाँ करतल बायें करतल पर रखे हुए वे मूर्तियाँ पर्यंकासन में हैं । धर्मादेवी के पीछे उसका लांछन सिंह अंकित है और उसके पद्मासन पर उसके दोनों पुत्रों श्रौर एक नारी अनुचर की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं । त्रिकूट- बस्ती मूलतः दो मंदिरों का ही समूह था, पद्मप्रभ और वासुपूज्य का; और दोनों की विन्यास - रेखा और चतुष्कोणीय अधिष्ठान प्रायः एक समान हैं । किन्तु एक और मंदिर, पार्श्वनाथ का, उन दोनों के बीच में बना दिया गया है जो उन दोनों के संयुक्त अर्ध-मण्डप की सीमा से सटा हुआ है । वासुपूज्य-मंदिर के धरणों पर कुलोत्तुंग - प्रथम (१०७०-११२० ई०) के अभिलेख उत्कीर्ण हैं । उसके अधिष्ठान के घटकों पर विक्रम चोल के ११३१ ई० और ११३५ ई० के अभिलेख हैं । कहा जाता है कि ये तीनों अभिलेख मूलतः वर्धमान मंदिर के अर्ध-मण्डप की दक्षिणी भित्ति में जड़े थे क्योंकि तब न तो त्रिकूट- बस्ती का निर्माण पूरा हुआ था और न वर्धमान मंदिर के अर्ध-मण्डप का, जहाँ ये अभिलेख ब स्थित हैं । जो अभिलेख निर्माण कार्य के कारण दृष्टि से प्रोझल होते दिखे उनकी प्रतिलिपि उत्कीर्ण कराकर मंदिर के सामने मुख्य स्थान पर स्थापित कर दी गयी, जैसा कि इस मंदिर - समूह में Jain Education International 329 For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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