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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई. [ भाग 5 कुमार तैलप द्वारा निर्मित कोल्लिपाक जैन मंदिर अब ध्वस्त अवस्था में है और पश्चिमी कर्नाटक के लक्ष्मेश्वर-मंदिर की भाँति यह मंदिर चोलों के आक्रमण के समय ध्वस्त कर दिया गया था। दक्षिणापथ में जैनों के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण केंद्रों में इसकी भी गणना थी। इस स्थान पर हए जैन क्रिया-कलापों का परिचय यहाँ प्राप्त हुए इन अवशेषों से मिलता है : यहाँ के कुछ अपेक्षाकृत लघ मंदिरों के द्वार-पक्षों पर अंकित हैं--पूर्ण-घट, मान-स्तंभ, आदिनाथ और पदमावती यक्षी की मूर्तियाँ; पाषाण का एक तोरण; आदि । विजयनगरम् और भीमनिपटनम् के मध्य स्थित भोगपुरम में पार्श्वनाथ का एक राजराजजिनालय नामक जैन मंदिर है जिसका निर्माण मन्नम नायक ने ११८७ ई० में अनंतवर्मन राजराज के शासनकाल में कराया था। अब केवल तीर्थंकर की मूर्ति बच रही है जो एक मीटर ऊंची है और सभी दृष्टियों से आकर्षक है। चिप्पगिरि से कलचुरि राजा बिज्जल के जीवन का घनिष्ठ संबंध रहा है। पहाड़ी पर स्थित यहाँ का जैन मंदिर कदाचित् उसी ने बनवाया था, या फिर वह उससे कुछ ही पहले बना था। इसमें गर्भगृह, अर्ध-मण्डप, महा-मण्डप और मुख-मण्डप हैं। महा-मण्डप नवरंग-प्रकार का है जिसके मध्य में चार स्तंभों पर आधारित अंकण है। यह उल्लेखनीय है कि काकतीयों और उत्तरकालीन चालक्यों द्वारा निर्मित मंदिरों की भांति इस मंदिर में भी नवरंग के चारों ओर कक्षासन की संयोजना है। के. वी. सौंदर राजन तमिलनाडु के स्मारक तमिल देश के जैन स्मारकों के प्रेरणा-स्रोतों और उसके निर्माण कार्य का परिज्ञान एक समस्या है क्योंकि उनमें से अधिकांश का निर्माण पल्लव-काल से विजयनगर-काल तक के विभिन्न अवसरों पर विभिन्न क्रमों में होता रहा। इनमें से कुछ स्मारकों का तो बाद में, वरन् अभी-अभी तक, अत्यधिक नवीनीकरण भी होता रहा । अतएव उन्हें इस पुस्तक में निर्धारित विभागों के अंतर्गत किसी विशेष काल का मान लेना या उसके आधार पर उनका विवेचन करना अत्यंत कठिन है। इसके फलस्वरूप, जिनका निर्माण तो चोल-काल में हुआ किन्तु उनमें संवर्धन या उनका नवीनीकरण विजयनगर-काल में हुआ, ऐसे स्मारकों का विवेचन दो अध्यायों, अर्थात, ६००-१००० ई. और १३००-१८०० ई. के अंतर्गत किया जाना चाहिए, और इनके मध्य के काल को या तो पूर्ववर्ती काल का समारोप मानना होगा या उत्तरवर्ती काल का समारंभ । इन स्मारकों को किसी विशेष काल से संबद्ध मानने में जो समस्याएँ हैं उनकी प्रकृति का बोध अग्रलिखित उदाहरणों से हो सकेगा। 326 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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