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________________ अध्याय 24 ] दक्षिणापथ और दक्षिण भारत स्थापित की हुई एक खड्गासन तीर्थंकर-मूर्ति और उसके दाहिनी ओर व्रत लेती हुई एक दर्शनार्थी महिला जिसके हाथ में एक कलश दिखाया गया है। व्रत एक जैन गुरु के द्वारा दिया जा रहा है जिसने अपना दाहिना हाथ ऊँचा कर रखा है और बायें हाथ में पिच्छ ले रखा है। साथ में एक साधु और है जो एक हाथ को इस चतुराई से नीचा किये है कि उसकी नग्नता छिप जाये। नीचे की पंक्ति में कुछ और भी दृश्य हैं : एक मुनि और दो आर्यिकाएँ, तीनों दिगंबर-परंपरा के प्रतीत होते हैं। इनके साथ उत्तम परिधान धारण किये हुए दो पुरुष और एक महिला भी दिखाये गये हैं। ये शिल्पांकित दृश्य मूलतः इस मंदिर के अंग रहे होंगे जिसे अब मल्लिकार्जुन-मंदिर कहते हैं और जो वीरशैव-मंदिर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया होगा और उसमें की जैन वस्तुएँ नष्ट कर दी गयी होंगी; पर वहाँ एक अभिलेख अब भी ऐसा बच गया है जिससे ज्ञात होता है कि लगभग १२५८ ई० में इस मंदिर का इरुगोल द्वारा जीर्णोद्धार कराया गया था और उसकी पत्नी पालपादेवी जैन परिवार की थी। अमरपुरम् में तैलगिरि दुर्ग में ब्रह्म-जिनालय नामक एक उत्तराभिमुख पार्श्वनाथ-मंदिर है। यह स्थान अनंतपुर जिले के दक्षिणी भाग में है और यहाँ कल्याणी के चालुक्य शासक तैल-द्वितीय की एक सैनिक चौकी थी। यहाँ के भी एक १२२८ ई० के अभिलेख में पालपादेवी की दानशीलता की चर्चा है। यह उल्लेखनीय है कि प्रसन्न-पार्श्वनाथ-वसदि के दूसरे नाम से प्रसिद्ध इस मंदिर का पूजारी चेल्ल पिल्ल शित्तन्नवासल का एक जैन ब्राह्मण था और तमिलनाडु में पुडक्कोट्ट के पास पोन्नमरावती-सीमा में रहता था। यहाँ के एक अभिलेख में जीर्णोद्धार के वृत्तांत में मंदिर के विभिन्न भागों के लिए स्थापत्य-संबंधी शब्दावली आयी है, जैसे, शिखर, महा-मण्डप, भद्र, लक्ष्मी-मण्डप, गोपूर, परिसूत्र, मान-स्तंभ, मकर-तोरण आदि; उसमें यह भी लिखा है कि यह मंदिर उपान से स्तुपी तक सभी उपर्युक्त भागों के साथ नया ही बनाया गया है; केवल मूर्तियों और अनुष्ठान से संबद्ध सामग्री ही पुरानी है जिसका उसमें उपयोग किया गया है। इस शब्दावली से स्पष्ट होता है कि मंदिरों के जो भी रूप उस समय प्रकाश में आये वे मूलतः 'दक्षिणी' विमान-शैली से संबद्ध थे जिसके अंतर्गत उक्त शब्दावली का प्रचलन रहा। हनुमकोण्डा की कडलाय-वसदि अर्थात् पद्मवासी-मंदिर (चित्र २०५ ख) काकतीय वंश के द्वितीय शासक और प्रथम स्वायत्त राजा प्रोल के समय के मंदिरों में से एक है। इसका निर्माण मंत्री बेतन की पत्नी मैलमा देवी के संरक्षण में हुआ था। यह मंदिर एक बड़े टीले पर स्थित है, इसका शिखर ईंटों से बना है और गर्भालय प्राकृतिक गुफा के रूप में है और उससे संबद्ध एक मण्डप है; सभी उत्तराभिमुख हैं। पास की ही एक चट्टान पर उत्कीर्ण मूर्तियों में एक कमलस्थित पार्श्वनाथ (चित्र २०६ क) की भी है, उसपर छत्र धारण किये हुए जो नारी-प्राकृति अंकित है, उसे प्रायः अपने पति के साथ उपस्थित मैलमा (चित्र २०६ ख) माना जाता है। इस मंदिर में ग्रेनाइट पाषाण से निर्मित चौमुख और चौबीसी के समूह हैं। इस मंदिर का काल लगभग 325 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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