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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई० [ भाग 5 और एक त्रि-विहार था। अपने गुरु हेमचंद्र के जन्मस्थान धंधुका में उसने ११६३ ई० में भोलिका-विहार का निर्माण कराया। उक्त राजा के जैन मंत्रियों ने जो मंदिर बनवाये, उनमें निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं--आबू पर्वत पर विमल-वसही के सामने पृथ्वीपाल द्वारा निर्मित मण्डप तथा पाटन का वनराज-विहार एवं कवि श्रीपाल के पुत्र सिद्धपाल द्वारा पाटन में निर्मित सिद्धपाल-वसती। मंत्री अमरभट्ट ने ११६६ ई. में भडौंच के प्राचीन शकुनिका-विहार के स्थान पर एक सुंदर नया मंदिर बनवा दिया जिस प्रकार उसके भाई वाग्भट्ट ने ११५५-५७ ई० में शत्रुजय स्थित एक प्राचीन आदिनाथ-मंदिर के स्थान पर नया मंदिर बनवाया था। कुमारपाल के शासनकाल के जैन भवनों में सबसे गौरवपूर्ण स्थान उस नृत्य-मण्डप को प्राप्त है जिसे मंत्री पृथ्वीपाल ने लगभग ११५० ई० में आबू पर्वत पर स्थित विमल-वसही में जोड़ा था। मण्डप को जोड़नेवाले गलियारे की कुछ छतें तो सचमुच ही स्थापत्य की सर्वोत्कृष्ट कृतियाँ हैं। मण्डप के बीच की छत, जिसका व्यास ७ मीटर से कुछ अधिक है, गुजरात में इस तरह की बड़ी छतों में सबसे बड़ी है किन्तु उसका मध्य लोलक (पद्मशिला) अनुपात में कुछ छोटा है; यद्यपि कलाकारिता और सौंदर्य में अप्रतिम है। इसी प्रकार, इस भव्य छत को अवलंब देनेवाले अत्यधिक अलंकृत स्तंभ १ से १ मीटर तक छोटे हैं, जिसके कारण इस सुंदर छत का समग्र प्रभाव अच्छा नहीं पड़ता। वैसे तो कुमारपाल द्वारा निर्मित अधिकांश मंदिर या तो नष्ट हो गये या क्षतिग्रस्त हो गये हैं, किन्तु फिर भी उसके द्वारा निर्मित सबसे बड़ा भवन अर्थात् तारंग का ११६५ ई० में बनाया गया अजितनाथ-मंदिर आज भी विद्यमान है। वह सांधार-प्रकार का एक मेरु-प्रासाद है, जिसमें प्रदक्षिणापथ-युक्त एक गर्भगृह और छज्जा-युक्त जालीदार तीन खिड़कियाँ हैं, किन्तु उसके पहले गूढ़-मण्डप बना हुआ है। इस विशाल मण्डप के केंद्रीय अष्टकोण के स्तंभ ऊँचे हैं और अलंकृत छत को अवलंब देते हैं। इस छत का व्यास लगभग ८ मीटर है और उसके बीच में एक विशाल लोलक है। इतना बड़ा प्राकार होने पर भी, यह भवन शोभाहीन लगता है। वह अनाकर्षक है, क्योंकि उसका अनुपात ठीक नहीं है, और उसके विभिन्न भागों में असंतुलन है। उसका तलघर उसकी कुल ऊँचाई को देखते हुए बहुत छोटा है, जबकि उसके सभी स्तंभ, विशेष रूप से उसके विशाल मण्डप के स्तंभ, ऊंचे और सादे हैं। इस कारण उसका ढाँचा अनाकर्षक हो जाता है। इसके अतिरिक्त उसके भद्र-छज्जे यथेष्ट चौड़े हैं, जबकि उसकी संवरण-छत के घण्टे ठीक अनुपात में न होने के कारण छोटे लगते हैं। घुमली का पार्श्वनाथ-मंदिर, जिसका अब केवल मण्डप ही शेष रह गया है, शैली की दृष्टि से इसी स्थान के अधिक विख्यात नवलखा-मंदिर-जैसा है और उक्त मंदिर की ही भांति बारहवीं शताब्दी के अंतिम भाग का है। 306 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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