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________________ अध्याय 23 ] पश्चिम भारत सन् १२२० के आसपास, राजनीतिक सत्ता वस्तुत: चौलुक्यों से बघेलों के हाथों में चली गयी। बघेलों के मंत्री वस्तुपाल और तेजपाल भारतीय कला के इतिहास में महानतम निर्माता थे। इन दो प्रसिद्ध बंधों ने पचास से भी अधिक मंदिरों का निर्माण कराया और उनके द्वारा जीर्णोद्धार कराये गये या नवीन रूप प्रदान किये गये मंदिरों की संख्या तो आश्चर्यजनक है। वस्तुपाल ने गिरनार पर्वत पर वस्तुपाल-विहार और पार्श्वनाथ-मंदिर, शत्रुजय पर इंद्र-मण्डप और छह अन्य मंदिर, ढोलका में आदिनाथ-मंदिर और प्रभास में अष्टापद-प्रासाद का निर्माण कराया था। उसके भाई तेजपाल ने पाटन और जूनागढ़ में आसराज-विहार, ढोलका में नेमिनाथ-मंदिर, प्रभास में आदिनाथ-मंदिर तथा अपनी माता के पुण्यार्जन के लिए खंभात और दमोह में भव्य मंदिरों का निर्माण कराया। आबू पर्वत पर प्रसिद्ध नेमिनाथ-मंदिर बनवाने के अतिरिक्त उसने थरड़, कर्णावती, गोधरा, पावागढ़ तथा नवसारी में मंदिर बनवाये। किन्तु इन महान निर्माताओं के बहुत कम मंदिर इस समय बचे रह गये हैं। गिरनार स्थित वस्तुपाल-विहार (१२३१ ई०) का पाश्विक गूढ़-मण्डप, जिसमें सम्मेदशिखर और अष्टापद की रचना है, विन्यास और बाहरी सज्जा की दृष्टि से सचमुच ही भव्य है; यद्यपि उसकी अनेक छतें नष्ट हो चुकी हैं और मण्डपों की भीतरी छतों का पंद्रहवीं शताब्दी में जीर्णोद्धार हा है। सन् १२३१ में आबू पर्वत पर तेजपाल द्वारा बनवाया गया नेमिनाथ का संगमरमर का प्रसिद्ध मंदिर, जो लूण-वसही (चित्र १६०-१९४) के नाम से अधिक विख्यात है, वस्तुत: अधिक सुरक्षित रह सका है। विमल-वसही के समान उसके गर्भगृह और गूढ़-मण्डप सादे हैं और उन पर फांसनाछतें हैं। नत्य-मण्डप की सर्पाकार वंदनमालिकाएँ तथा अत्यंत मनोरम पद्मशिला से युक्त उसकी छत सर्वाधिक प्रभावकारी है। त्रिक के दोनों खट्टक भी भव्य हैं तथा अलंकरण की उत्कृष्टता जताते हैं। सन् १२३१ में ही निर्मित कुंभरिया स्थित संभवनाथ-मंदिर अपेक्षाकृत साधारण है तथा उसमें परिवेष्टनकारी देवकूलिकाएँ नहीं हैं। इस मंदिर में एक गर्भगृह, पाश्विक प्रवेशमार्ग-यूक्त गूढ-मण्डप, और एक सभा-मण्डप एक प्राकार में हैं। उसके शिखर पर जालियों का अलंकरण तथा गूढ़-मण्डप--जिस पर पाबू स्थित तेजपाल-मंदिर-जैसे शिखरों और मण्डपों के रूपांकन हैं--का द्वार-मार्ग उसके समय और शैली का आभास दे देते हैं। सरोत्रा स्थित संगमरमर का जैन मंदिर जिसमें गर्भगृह, गूढ़-मण्डप तथा बावन देवकुलिकाएँ हैं, तेरहवीं शताब्दी के प्रथम अर्धभाग के एक सुनियोजित जैन मंदिर का सर्वोत्तम उदाहरण है। तेजपाल और वस्तुपाल द्वारा डाली गयी परोपकारपूर्ण परंपराओं को अगली पीढ़ी में भद्रावती के जगदशा तथा माण्ड के पेठड ने बनाये रखा। अनेक जैन और ब्राह्मण्य मंदिरों को 307 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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