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________________ अध्याय 23 ] पश्चिम भारत सन् १११६ में दण्डनायक कपर्दिन ने पाटन में एक जैन मंदिर का निर्माण कराया। उसके मंत्री उदयन ने सीमंधर का एक मंदिर धोलका में बनवाया था जिसकी प्रतिष्ठा वादिदेव-सूरि ने की थी। उदयन ने खंभात में उदयन-विहार का भी निर्माण कराया था। श्रेष्ठी धवल ने भी धोलका में ११३७ ईसवी में मुनि-सूव्रत-मंदिर बनवाया था। हेमचंद्र के द्वयाश्रय-काव्य में यह वर्णित है कि सिद्धराज नरेश ने सिद्धपुर में महावीर के एक मंदिर का निर्माण कराया था जिसका उल्लेख सोमप्रभाचार्य के कुमारपाल-प्रतिबोध में सिद्ध-विहार के रूप में हुआ है । सन् ११४२ में वादिदेव-सूरि द्वारा प्रतिष्ठित यह मंदिर एक चतुर्मुख मंदिर था जो राय-विहार के नाम से भी प्रसिद्ध था तथा वही आगे चलकर रणकपुर के प्रसिद्ध धरणी-विहार के लिए अनुकरण की वस्तु बना। सिद्धराज के शासनकाल के उत्तरार्ध में निर्मित कंभरिया स्थित नेमिनाथ-मंदिर में पूर्णतः अलंकृत तलघर और जंघा हैं (चित्र १८६)। त्रिक-मण्डप, जिसमें दस चतुष्कियाँ और तीन सोपान-क्रम हैं, आबू के नमूनों से मिलता-जुलता है। रंग-मण्डप में दो तल्ले हैं और उसके अनुपात आकर्षक हैं। रंग-मण्डप, त्रिक-मण्डप और नाल-मण्डप के स्तंभ बहुत अलंकृत हैं और वे प्राब स्थित विमल-वसही के रंग-मण्डप के स्तंभों-जैसे हैं। सिद्धराज के शासनकाल के उत्तरार्ध में निर्मित सेजकपुर स्थित एक छोटा-सा जैन मंदिर, जिसमें गर्भगृह, गढ़-मण्डप और त्रिक-मण्डप थे, एक अलंकृत और सुंदर अनुपात में निर्मित भवन था किन्तु हाल ही के वर्षों में वह लगभग ध्वस्त हो गया है। दण्डनायक सज्जन द्वारा बनाया गया गिरनार पर्वत पर स्थित नेमिनाथ-मंदिर भी इसी काल का एक सांधार-प्रासाद है जिसमें छज्जा-युक्त जालीदार खिड़कियाँ हैं। उसके तलघर में कुछ ही सज्जा-वस्तुएं हैं और मंदिर के आकार को देखते हुए उसकी जंघा भी बहुत छोटी है। गूढ़-मण्डप देवालय से थोड़ा बड़ा है किन्तु देवालय का पलस्तर बहुत निम्न कोटि का है, उसके त्रिक-मण्डप के स्थान से आगे चलकर एक मण्डप बनाया गया है, जिसके द्वार-मार्ग छोटे हैं। सिद्धराज का उत्तराधिकारी राजा कुमारपाल (११४४-७४ ई०) मंदिर-निर्माता के रूप में सिद्धराज से भी आगे निकल गया। उसने अनेक जैन और ब्राह्मण्य मंदिरों का निर्माण कराया। कहा जाता है कि उसने अपने विगत जीवन में मांसाहारी रहने, जिसमें प्राणियों का वध भी होता था, के पश्चात्ताप के रूप में बत्तीस जैन मंदिरों का निर्माण करवाया था। पाटन में उसने पार्श्वनाथ-अधिष्ठित, चौबीस देवकूलिकाओं से युक्त कुमार-विहार का निर्माण कराया। उसने गिरनार, शत्रुजय, प्रभास, आबू और खंभात-जैसे पवित्र स्थानों तथा थरड़, ईदर, जालौर, दीव तथा मंगरोल-जैसे नगरों में कुमार-बिहार बनवाये । उसने ११६० ई० में अपने पिता त्रिभुवनपाल की स्मृति में त्रिभुवन-विहार का निर्माण कराया और उसमें नेमिनाथ की प्रतिमा स्थापित करायी, जिसमें बहत्तर देवकुलिकाएँ 305 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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