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________________ अध्याय 23 ] पश्चिम भारत छाद्य वरण्डिका को उस शिखर से पृथक् करती है जो अंकन में राजस्थानी मंदिरों की भाँति होता है। एक सूनिर्मित मंदिर के मण्डप पर छत की एक ऐसी विभेदक रचना दिखाई देती है जिसे संवरण कहा जाता है और जिसकी स्तूपाकार रचना में कर्णवत् छोटी-छोटी छतें होती हैं जिनके ऊपर घण्टे बने होते हैं। चौलक्य-मंदिर की भीतरी व्यवस्था में भी कुछ अपनी विशेषताएँ दिखाई देती हैं। उनके मण्डपों की बनावट परिस्तंभीय है और उनके स्तंभों पर एक निश्चित क्रमानुसार प्राकृतियों तथा अन्य सज्जा-रचना द्वारा विशेष अलंकरण किया गया है। मण्डपों में स्तंभों का एक अष्टकोणीय विन्यास दिखाई देता है और इनसे बड़ी संकल्पनाओं में प्रमुख स्तंभों के आर-पार अलंकृत तोरणों की योजना की गयी है। मण्डप की गंबदाकार छत का आधार ऐसी तोरण-सज्जा का एक अष्टकोणीय ढांचा है जो स्तंभों पर टिकी है और जिसके कम होते जानेवाले सकेंद्रिक वलय अंत में जाकर एक अति सुंदर केंद्रीय लोलक (पद्मशिला) का निर्माण करते हैं । मण्डप के वक्रभाग और मुख-मण्डप की सज्जा अलंकृत वेदिकामों से की गयी है। इस प्रकार बाह्य सज्जा की दृष्टि से चौलुक्य-मंदिर सामान्यत: उत्तरी प्रदेशों के मंदिरों के समान हैं किन्तु अपने भीतरी भाग के प्रचुर अलंकरण और अत्यंत सुंदर बनावट में वे अद्वितीय हैं । विकसित चौलुक्य-शैली के जैन मंदिर में एक गर्भगृह, पाश्विक वक्रभाग-युक्त, एक गढ़-मण्डप, छह या नौ चौकियोंवाला एक स्तंभ-युक्त मुख-मण्डप तथा सामने की ओर एक परिस्तंभीय नृत्य-मण्डप होते हैं। ये सब एक चतुष्कोण में होते हैं जिसके आसपास देवकुलिकाएं होती हैं, जिनके सामने भ्रमती के एक या कभी-कभी दो खण्डक होते हैं । स्तंभ-युक्त मुख-मण्डप का छह या नौ खण्डकों में विस्तार तथा उसके आसपास भ्रमती-युक्त देवकुलिकाओं का सम्मिलित किया जाना—ये दोनों ही परिकल्पनाएँ चौलुक्य-निर्माण-शैली में जैन धर्मावलंबियों का विशेष योगदान हैं। इस बात के साहित्यिक प्रमाण मिलते हैं कि गुजरात में पाठवीं शताब्दी से ही जैन मंदिरों का निर्माण होता रहा है। कहा जाता है कि वनराज चापोत्कट ने वनराज-विहार नामक पंचसारपार्श्वनाथ-मंदिर और उसके मंत्री निन्नय ने, जो विमल का पूर्वज था, एक ऋषभनाथ-मंदिर पाटन अन्हिलवाड़ में विद्याधर गच्छ के लिए ७४२ ई० के कुछ ही समय बाद बनवाये थे। जो भी हो, इन मंदिरों के अवशेष नहीं मिलते । पश्चिमी भारत में इस समय जो सबसे प्राचीन जैन मंदिर है, वह है दण्डनायक विमल द्वारा १०३२ ई० में आबू पर बनवाया गया आदिनाथ का संगमरमर का प्रसिद्ध मंदिर, जो विमल-वसही के नाम से प्रसिद्ध है (चित्र १८३ से १८८)। यह एक संयोग की बात है कि वह चौलुक्य-शैली के प्राचीन 1 प्रशासन की दृष्टि से यद्यपि माउण्ट आबू अब राजस्थान में है तद्यपि मंदिर-स्थापत्य की दृष्टि से वह गुजरात का ही भाग है. 303 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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