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________________ अध्याय 23 पश्चिम भारत चौलुक्य - मंदिर 1 चौलुक्य ( सोलंकी) स्थापत्य उत्तर भारत को सबसे समृद्ध ऐसी प्रादेशिक शैली का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी अपनी स्पष्ट विशेषताएँ हैं। चौलुक्य वंश के शक्तिशाली शासकों के समृद्धिपूर्ण शासनकाल में पश्चिमी भारत में, मंदिर - निर्माण में सबसे अधिक प्रगति हुई क्योंकि इस चौलुक्यशैली को इन शासकों का आश्रय प्राप्त था । चौलुक्य शैली के मंदिर में वे सभी आवश्यक अंग पाये जाते हैं जो किसी उत्तर-भारतीय मंदिर में देखने को मिलते हैं । उसके विन्यास में गर्भगृह, गूढ़ मण्डप और मुख मण्डप होते हैं जो बाहर और भीतर एक-दूसरे से जुड़े होते हैं । इनकी सामने की दीवारों का तारतम्य अनेक ऐसे खाँचों या कटावों द्वारा ही टूटता है जो क्रम से बाहर निकले हुए या अंदर धँसे हुए होते हैं । इनके फलस्वरूप एक ऐसा चित्र-विचित्र रूपांकन हमारे सामने आता है जिसमें प्रकाश और छाया का अंतर दर्शाया गया है । कुछ बड़े मंदिरों में, उसी रेखा में, एक ऐसा सभा मण्डप भी और जोड़ दिया गया होता है जिसके सम्मुख भाग में तोरण का निर्माण किया गया हो। ऐसे मंदिरों की संख्या बहुत कम है जिनमें सभा मण्डप के एक से अधिक तल्ले हों । जहाँ तक रूप-योजना का प्रश्न है, चौलुक्य शैली के मंदिर में पीठ, वेदी-बंध और जंघा -- जिन्हें सामूहिक रूप से मण्डोवर, वरण्डिका और शिखर कहा जाता है-जैसे सभी सामान्य भाग पाये जाते हैं और ये सभी भाग, जिनमें सज्जा - वस्तुएँ तथा सजावटी अलंकरण सम्मिलित हैं, परंपरा द्वारा एक निश्चित क्रम में निर्मित किये गये होते हैं । इस शैली के एक विशिष्ट मंदिर में जाड्यकुंभ, कणिका और ग्रास-पट्टी के पीठ की सज्जा- वस्तुएँ ऐसे गजथर और नरथर द्वारा महत्त्वाभिलाषी संकल्पनाओं में प्राच्छादित हैं जिनके बीच अश्वथर का निर्माण किया गया होता । पारंपरिक बेदी-बंध-सज्जा के ऊपर जंघा होती है जिसका अलंकरण बाहर निकली हुई देवी-देवताओं और अप्सराओं तथा भीतर की ओर बनायी गयी अप्सरानों, व्यालों या तपस्वियों की मूर्तियों के द्वारा किया गया है । जंघा की आच्छादनकारी सज्जा - वस्तुएँ एवं अलंकरण तथा वरण्डिका जिसमें उद्गम, भरणी, कपोत और पुष्प-कण्ठ सम्मिलित हैं, एक निश्चित नमूने के अनुरूप हैं । एक सुस्पष्ट कूट 1 इस निबन्ध को लिखने में लेखक को श्री एम. ए. ढाकी से उदार सहायता प्राप्त हुई है. 302 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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