SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई. [ भाग 5 नमूनों में से एक है। केवल उसके गर्भगृह, गढ़-मण्डप और त्रिक-मण्डप (जिसे लोग नवचौकी कहते हैं) ही मूल भाग हैं। उसके शेष भाग बारहवीं शताब्दी में जोड़े गये हैं। उसके त्रिक-मण्डप का अत्यंत सुंदर अलंकरण किया गया है। इस मण्डप के स्तंभ मोढेरा स्थित सूर्य-मंदिर से बहुत मिलते हैं। यही स्थिति उसकी क्षिप्त-प्रकार की एक छत की है। उसके दो खट्रक गुजरात में अपने ढंग के सबसे प्राचीन खट्टक हैं। इसी शैली का एक और जैन मंदिर महावीर का संगमरमर-निर्मित मंदिर है जो १०६२ ई० में कुंभरिया (प्राचीन आरासण) में बनाया गया था जहाँ एक शैव मंदिर के अतिरिक्त चार अन्य जैन मंदिर भी विद्यमान हैं। एक विस्तृत जगती पर निर्मित इस मंदिर में हैं--गर्भगृह, गढ़-मण्डप, त्रिकमण्डप, रंग-मण्डप जिसके दोनों ओर आठ देवकुलिकाएं हैं और जिसके सामने तीन देवलियाँ तथा एक वलाणक हैं । ये सब एक प्राकार के भीतर हैं । जगती के पूर्वी सिरे पर एक छोटे आकार के समवसरण की रचना है जिसपर संवरण-छत है। गर्भगृह के ऊपर इक्कीस अण्डकों का एक सुंदर शिखर है। गूढ़-मण्डप संवरण-छत से युक्त है जो साण्डेर के शैव मंदिर से मिलती-जुलती है। मंदिर का भीतरी भाग बहुत सुंदर ढंग से अलंकृत है और अनुपात तथा संकल्पना-एकलन में आबू के विमलमंदिर से भी बढ़-चढ़कर है। त्रिक-मण्डप अपने अनुपात और सूक्ष्म सौंदर्य के कारण बेजोड़ है। उस की दो केंद्रीय छतें तो स्थापत्य की अनुपम कृतियाँ हैं। कुंभरिया स्थित शांतिनाथ-मंदिर, जिसे लगभग १०८२ ई० का कहा जा सकता है, के विन्यास और रचना में कुछ फेर-बदल के साथ महावीर-मंदिर का अनुकरण किया गया है। यह एक संपूर्ण चतुर्विशति जिनालय है जिसमें पूर्व और पश्चिम, दोनों दिशाओं में पाठ देवकुलिकाएं हैं तथा रंगमण्डप के प्रवेश-स्थल के दोनों ओर चार देवलियाँ हैं। महावीर-मंदिर से इसमें अंतर यह है कि उक्त मंदिर में त्रिक में तीन चतुष्कियाँ और एक प्राग्ग्रीव हैं जबकि इस मंदिर के त्रिक में छह चतुष्कियाँ हैं और इसके खट्टकों का बहुत सुंदर अलंकरण किया गया है। जगती के दक्षिण-पश्चिमी कोने में एक छोटा पूजास्थल है जिसमें चतुर्मुख नंदीश्वर-द्वीप की रचना है। गढ़-मण्डप में महावीर के मंदिर की अपेक्षा सादी संवरणा है और उसमें अवशेषी फाँसना के चिह्न भी नहीं हैं। उक्त मंदिर से परवर्ती काल का कुंभरिया स्थित पार्श्वनाथ-मंदिर है जो कि सिद्धराज जयसिंह (१०६४-११४४ ई०) के शासनकाल का है। यह महावीर और शांतिनाथ-मंदिरों की अपेक्षा कुछ बड़ा है। इसका मुख भी उत्तर की ओर है तथा उसमें रंग-मण्डप के पूर्व और पश्चिम में नौ देवकुलिकाएं हैं तथा इसी प्रकार प्रवेश-द्वार के दोनों ओर तीन देवकुलिकाएं हैं। इस मंदिर में सोपानमार्ग के ऊपर एक नाल-मण्डप है, जो बाद में जोड़ा गया है। इसमें रंग-मण्डप और त्रिक-मण्डप तथा बीच की दो देवकुलिकानों के सामने के स्तंभों को बड़ी उत्तमतापूर्वक अलंकृत किया गया है। त्रिक-मण्डप का विन्यास महावीर-मंदिर जैसा ही है किन्तु उसके दो स्तंभ एक अति सुंदर तोरण को आधार देते हैं। इस मंदिर के सबसे प्राचीन शिलालेख के आधार पर इस मंदिर का काल ११०५ ई० निर्धारित किया जा सकता है। 304 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy