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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई०
[ भाग जगती की सज्जा-पट्टियाँ अब नष्ट हो चुकी हैं। उपपीठ में दो अलंकृत सज्जा-पट्टियाँ, जो दो सादी पट्टियों पर टिकी हैं, सम्मिलित हैं और सामान्य पीठ को आधार प्रदान करती हैं। इस पीठ में जाड्यकुंभ, कर्णिका और ग्रास-पट्टी की सज्जा-पट्टियाँ हैं जिनके ऊपर गजथर और नरथर बने हुए हैं। नरथर में अनेक प्रकार की कथाएँ चित्रित हैं जो पौराणिक एवं लौकिक हैं। इन कथाओं में समुद्र-मंथन, युद्ध, नृत्य-संगीत एवं कामुक-युगलों के दृश्य हैं। नरथर जगती के स्तर को सूचित करता है तथा वह वेदी-बंध की अलंकृत सज्जा-पट्टियों को आधार प्रदान करता है, जिनके ऊपर मंचिका, जंघा, उद्गम, भरणी, कपोत और कूट-छाद्य निर्मित हैं। ये सब चौलुक्य-शैली के कुमारपाल-चरण की विशेषताएँ हैं । वेदी-बंध की कुंभ-सज्जा-पट्टी का अलंकरण आलों द्वारा किया गया है, जिनमें जैन यक्षियों तथा विद्यादेवियों की आकृतियाँ हैं।
गर्भगृह के ऊपर का शिखर, जो कूट-छाद्य के ऊपर बना हुआ था, अब नष्ट हो चुका है किन्तु उसके खण्डित अवशेषों से यह स्पष्ट है कि वह बारहवीं शताब्दी की चौलुक्य-शैली का था।
गर्भगृह की योजना पंचरथ है। उसके केंद्रीय रथ के तीन मुख हैं तथा शेष के केवल दो ही। जंघा-प्रक्षेपों के सभी मुखों का अलंकरण प्राकृतियों द्वारा किया गया था। केंद्रीय प्रक्षेप के दोनों ओर स्पष्टतः एक-एक आला है जिसमें किसी समय जैन देवताओं की मूर्तियाँ थीं, पर जो अब उपलब्ध नही हैं । कोने के रथों में दिक्पालों की मूर्तियाँ अंकित हैं। अन्य शेष रथों का अलंकरण जैन देवताओं या अप्सराओं की मूर्तियों द्वारा किया गया है। अप्सराओं में मरोड़ और आकुंचन देखने को मिलते हैं जो बारहवीं शताब्दी की अपनी विशेषता है।
मंदिर में प्रवेश तीन अर्ध-मण्डपों से होकर है। सभी अर्ध-मण्डप एक जैसे थे और वे चार अलंकृत स्तंभों पर टिके हए थे। इनकी छत पर नाभिच्छंद-प्रकार का क्षिप्त-वितान था। मंदिर में प्रवेश के लिए उत्तरी मण्डप ही प्रमुख मार्ग था ।
त्रिक-मण्डप में छह स्तंभ और इतने ही अर्ध-स्तंभा हैं । चार स्तंभ अर्ध-मण्डप के स्तंभों-जैसे हैं । त्रिक-मण्डप के शेष दो स्तंभों का अलंकरण ऊपरी अष्टकोणीय खण्ड के मूर्तियुक्त आलों द्वारा किया गया है जो गुजरात के कुछ विकसित मंदिरों की विशेषता है।
गूढ-मण्डप बहुत बड़ा अष्टकोणीय है । यह आठ स्तंभों पर टिका हुआ है। इन स्तंभों पर वर्तलाकार भीतरी छत, क्षिप्त-वितान है जो सभा-मार्ग-प्रकार का है और एक स्पष्ट पद्मशिला में परिणत होता है। भीतरी छत के निचले भाग से सोलह भूत प्रक्षिप्त हैं, जिनसे संभवतः उन सोलह विद्यादेवियों को आधार मिलता रहा होगा जो अब उपलब्ध नहीं हैं।
गढ़-मण्डप के चारों द्वार-मार्ग पंचशाखा-प्रकार के हैं। इनपर पत्र-लता, स्तंभ-शाखा, हीरक और पाटल-रचना तथा पद्म-पत्र-लता उत्कीर्ण हैं। तोरण-सज्जा में पाँच आले हैं जिनमें जैन यक्षियों की
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