________________
अध्याय 22 ]
मध्य भारत आकृतियाँ हैं। गर्भगृह का द्वार-मार्ग गूढ-मण्डप के द्वार-मार्ग से अंकन में विशेष रूप से पूर्णतः मिलता-जुलता है । गर्भगृह छोटा एवं सादा है जिसका नाप २.४४ मीटर-वर्ग है । उसपर एक कदलिकायुक्त भीतरी सादी छत है। विक्रम संवत् १२४२ (११८५ ई०) की शांतिनाथ की प्रतिमा, जो गर्भगृह में प्रतिष्ठित मूलनायक की प्रतिमा थी, अब इंदौर संग्रहालय में है। गर्भगृह में अब केवल उसकी चौकी ही अवशिष्ट है।
एक दूसरा जैन मंदिर जिसे स्थानीय रूप से ग्वालेश्वर कहा जाता है, ऊपर वणित चौबारा डेरा-२ मंदिर से अपनी योजना में लगभग समान ही है। इस मंदिर का यथेष्ट जीर्णोद्धार किया गया है और यहाँ अब भी पूजा होती है। उसका नागर-शिखर कुछ सुरक्षित है तथा अब भी देखा जा सकता है।
शैली की दृष्टि से ऊन स्थित दोनों ही जैन मंदिर बारहवीं शताब्दी के हैं। जहां एक ओर चौबारा डेरा-२ कुमारपाल-चरण की चौलुक्य-शैली का है वहीं दूसरी ओर ग्वालेश्वर-मंदिर में स्थापत्य की परमार तथा चौलूक्य दोनों ही शैलियों का मिश्रण है।
कलचुरि क्षेत्र--पारंग
चंदेलों तथा परमारों की ही भाँति, कलचुरि या चेदि भी ब्राह्मण्य संप्रदायों के अनुयायी थे। फिर भी, वे जैन धर्म को उदार संरक्षण प्रदान करते थे क्योंकि उनकी प्रजा का एक प्रभावशाली वर्ग जैन धर्मावलंबी था। मध्य भारत के अन्य प्रदेशों की भाँति, महाकोसल में भी जैन मूर्तियों एवं मंदिरों के विस्तृत अवशेष पाये जाते हैं जो कला और स्थापत्य की चेदि-शैली की उत्कृष्टता के समभागी हैं। जबलपुर जिले में दसवीं से बारहवीं शताब्दियों की अनेक तीर्थंकर-प्रतिमाएं पायी गयी हैं। तेवर (त्रिपुरी) का स्थल, जो चेदि-राजधानी था, कुछ उत्कृष्ट तीर्थंकर-प्रतिमाओं के लिए विशेष रूप से विख्यात है। शहडोल जिले के सोहागपुर में या उसके आसपास जैन मंदिर विद्यमान थे--इस तथ्य की पुष्टि सोहागपुर स्थित ठाकुर के महल में संगृहीत अनेक जैन मूर्तियों से होती है जिनमें शासन-देवताओं की मूर्तियाँ भी सम्मिलित हैं। महाकोसल के सिरपुर, मलहार, धनपुर, रतनपुर और पदमपुर से भी तीर्थकरों की प्रतिमाएँ प्राप्त हई हैं।
रायपुर जिले में स्थित पारंग जैन कला और स्थापत्य का एक प्रसिद्ध केंद्र था। वहाँ लगभग ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दियों की अनेक जैन प्रतिमाएँ बिखरी मिली हैं और भग्नावस्था में एक जैन मंदिर भी मिला है जो कि भाण्ड-देवल के नाम से विख्यात है (चित्र १७७)। इसकी तिथि ग्यारहवीं शताब्दी निर्धारित की जा सकती है। यह मंदिर भूमिज-देवालय का सर्वाधिक पूर्वीय उदाहरण है तथा
1 बैनर्जी (आर डी) हैहयज् प्रॉफ़ त्रिपुरी एण्ड वेभर मौन्युमेण्ट्स, मेमायर्स ऑफ़ दि आयॉलॉजिकल सर्वे ऑफ़
इण्डिया ,23. 1931. कलकत्ता. पृ 100 तथा चित्र 41.
299
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org