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________________ अध्याय 22 ] प्रकार की अनेक प्राकृतियाँ आदिनाथ मंदिर में हैं जिनमें इनके सिर हाथी, मनुष्य, तोता, भालू, आदि के हैं । व्याल की प्राकृति सामान्यतया जंघा के कटावों में बनायी गयी है किन्तु वह शुकनासिका और भीतरी भाग में भी दृष्टिगोचर होती है । अप्सराओं की भाँति, वह सर्वाधिक विशिष्ट एवं लोकप्रिय मूर्ति विषय है और उसका बड़ा गहरा प्रतीकार्थ है । खजुराहो की जैन मूर्तिकला ने प्राचीन परंपरा से बहुत कुछ ग्रहण किया है किन्तु वह मुख्य रूप से मध्ययुगीन है । क्योंकि खजुराहो मध्य भारत के बीचों-बीच स्थित है, जिसपर पूर्व और पश्चिम की कला का प्रभाव पड़ा है, इस कारण खजुराहो की मूर्ति कला में पूर्व की संवेदनशीलता तथा पश्चिम की अधीरतापूर्ण किन्तु मृदुलताहीन कला का सुखद संयोजन है । यद्यपि इस कला की तुलना भव्यता, अनुभूति की गहनता एवं कलाकार के प्रांतरिक अनुभव की अभिव्यक्ति को ध्यान में रखते हुए गुप्तकालीन कला की उत्कृष्टता से नहीं की जा सकती, तथापि उसमें मानवीय सजीवता का आश्चर्यका स्पंदन है । इन मूर्तियों की विशालता एवं स्पंदनशीलता से हम चकित रह जाते हैं । लगता है कि वे दीवार की सतह से पूर्णाकृतियों में या पूर्ण उभार में मूर्ति-सौंदर्य के मनोहर गीत की भाँति हमारे समक्ष उतर आती हैं । मूर्ति-निर्माण में यहाँ साधारणतः उस गति की कमी है जो पूर्व मध्य युग की मूर्तियों की विशेषता है । वैसे कल्पक आयाम तो पर्याप्त हैं किन्तु रूढ़िबद्ध हैं, जो यह सूचित करता है कि कल्पक दृष्टि क्षीण हो गयी है । पूर्णत: उकेरी गयी और मूर्ति को रूप देनेवाली कल्पकता का स्थान तीक्ष्ण उपांतों और तीक्ष्ण कोणों ने ले लिया है; एवं अनुप्रस्थों, ऊर्ध्वाधर रेखाओं और कर्णों पर बल दिया गया 1 फिर भी यह कला अपने समसामयिक कला - शैलियों से मानवीय मनोभावों और अभिरुचियों के सजीव अंकन में अधिक उत्कृष्ट है । इनकी अभिव्यक्ति प्रायः इंगितों तथा आकुंचनों के माध्यम से सूक्ष्म किन्तु उद्देश्यपूर्ण ऐंद्रिक उद्दीपना के द्वारा की गयी है । भाव-विलासपूर्ण सुकुमारता तथा मुक्त कामोद्दीपक हाव-भाव इसका मुख्य स्वर है, और यही बात इस कला को समसामयिक अन्य कला - शैलियों से पृथक् करती है । परमार प्रदेश Jain Education International मध्य भारत -- ऊन मालवा के मध्य भाग में स्थित ऊन, जो पश्चिम निमाड़ जिले में है, स्थापत्य की परमार शैली का एक प्रसिद्ध केंद्र है । बारहवीं शताब्दी इस नगर में कुमारपाल चरण की एक सुंदर चालुक्य- शैली में जैन मंदिर का निर्माण किया गया था । यह मंदिर, जो स्थानीय रूप से चौबारा - डेरा-२ के रूप में प्रसिद्ध है, नगर के उत्तरी छोर पर एक प्राकृतिक पहाड़ी पर स्थित है। मंदिर का मुख उत्तर की ओर है और उसकी संयोजना में गर्भगृह, अंतराल, गूढ़-मण्डप, जो पाश्विक अर्ध-मण्डपों से युक्त है, त्रिक्मण्डप और मुख चतुष्की सम्मिलित हैं। गूढ़ मण्डप में चार द्वार-मार्ग हैं जिनमें से दो पाश्विक द्वारमार्ग एक-एक अर्ध-मण्डप में खुलते हैं । 297 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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