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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई. [ भाग 5 खजुराहो के प्राचीन जैन मंदिरों में के ये केवल दो ही मंदिर, पार्श्वनाथ और आदिनाथ, अच्छे रूप में सुरक्षित रह पाये हैं । घण्टाई-मंदिर घण्टाई-मंदिर (चित्र १६४) को स्थानीय लोग इसलिए घण्टाई कहते हैं कि उसके ऊँचे मनोहर स्तंभों पर शृंखला और घण्टों का बहुत सुंदर रूपांकन हुआ है । ये स्तंभ मध्ययुगीन भारत के सर्वोत्कृष्ट स्तंभों में से हैं और अपने विशाल आकार, भव्य अलंकरण और पारंपरिक रचना की गरिमा के कारण ये महत्त्वपूर्ण हैं । इसका मुख पूर्व की ओर है । वर्तमान में इसका जो बाहरी ढाँचा बचा है वह यह दर्शाता है कि इसकी रूपरेखा पार्श्वनाथ-मंदिर-जैसी ही थी किन्तु इसकी संकल्पना अधिक विशाल थी और विस्तार में यह पार्श्वनाथ-मंदिर से लगभग दुगुना था। इस समय इस मंदिर के केवल अर्धमण्डप और महा-मण्डप ही शेष बच रहे हैं। इनमें से प्रत्येक मण्डप चार-चार स्तंभों पर आधारित हैं और एक समतल तथा अलंकृत छत (चित्र १६५) को आधार दिये हुए हैं। पार्श्वनाथ-मंदिर के समान इसके महा-मण्डप में भी प्रवेश एक विस्तृत द्वार से होता है। पहले वह एक ठोस दीवार से घिरा हुआ था, अब महा-मण्डप और अर्ध-मण्डप को आधार देनेवाले कुछ ही अर्ध-स्तंभ शेष बचे हैं । ये अर्ध-स्तंभ बिलकुल सादे हैं और इनपर मात्र घट-पल्लव का साधारण-सा पारंपरिक अंकन है। इन्हें परिवेष्टित करनेवाली दीवार के साथ ही मंदिर की रूप-योजना के दो महत्त्वपूर्ण अंग अंतराल और गर्भगृह की प्रतीति उनकी अनुपस्थिति में भी होती है। इसके अतिरिक्त अवशिष्ट भवन की लुप्त छत के स्थान पर अब एक समतल छत है। इससे यह भवन आकर्षक होते हए भी एक विचित्र-सा स्थापत्य-अवशेष बनकर रह गया है। उक्त मंदिर और पार्श्वनाथ-मंदिर की रूपरेखा और संयोजना में जो समानता है वह यह जताती है कि इन दोनों मंदिरों के निर्माण-काल में बहुत अधिक अंतर नहीं रहा होगा। इन दोनों में से घण्टाईमंदिर अधिक बड़ा है और कुछ अधिक विकसित है, अतः कुछ बाद के समय का है। इस बात की पुष्टि उसकी उत्कीर्णन-शैली और इस समय उपलब्ध मूर्तियों के अधिक पारंपरिक होने से तथा उसकी परवर्ती कला की झलक से भी होती है। इस मंदिर के जो दो भित्ति-आरेख हैं उनमें से एक पर जो 'स्वस्ति श्री साधुपालः' लिखा है, वह बाद में किसी तीर्थ-यात्री द्वारा बारहवीं शताब्दी में उत्कीर्ण कर दिया गया है। किन्तु दूसरा लेख जिसमें 'नेमिचन्द्रः' लिखा है उसकी तिथि दसवीं शताब्दी का अंतिम भाग हो सकती है । मूर्तिकला और स्थापत्य-शैली के आधार पर भी इस मंदिर का निर्माणकाल दसवीं शताब्दी निर्धारित किया जा सकता है। इस मंदिर के पास जो एक अभिलेख-युक्त बुद्ध-मूर्ति मिली थी (खजुराहो में केवल यही बौद्ध , प्रतिमा पायी गयी है और अब वह स्थानीय संग्रहालय में प्रदर्शित है) उसके कारण कनिंघम ने पहले यह विचार व्यक्त किया कि यह एक बौद्ध मंदिर है किन्तु आगे चलकर उन्होंने यह मत त्याग दिया और 282 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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