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अध्याय 22 ]
मध्य भारत
इसकी पहचान जैन मंदिर के रूप में की; और अब यही मत सभी विद्वान स्वीकार करते हैं। अन्य स्थानीय जैन मंदिरों की ही भांति, घण्टाई-मंदिर भी दिगंबर-संप्रदाय का था। यह उन सोलह मंगलप्रतीकों (श्वेतांबर संप्रदाय में चौदह होते हैं) से स्पष्ट है जो सरदल पर अंकित हैं तथा उन अनेक जैन नग्न प्रतिमाओं से भी सिद्ध होता है जिन्हें कनिंघम ने इस भवन के आसपास खोद निकाला था ।। इन प्रतिमाओं में आदिनाथ की एक खण्डित मूर्ति थी जिसपर विक्रम संवत् ११४२ (१०८५ ई०) का एक लेख खुदा हुआ था। अब यह मूर्ति स्थानीय संग्रहालय में है।
वैसे तो देखने पर लगता है कि इस मंदिर की कोई जगती नहीं है; किन्तु खजुराहो के सभी मंदिर जगती पर बनाये गये हैं, इसलिए जान पड़ता है कि इस मंदिर की जगती मलबे के नीचे दब गयी है।
भूमितल के ऊपर जो अधिष्ठान दिखाई पड़ता है वह दो सादे भिद्र-पट्रियों से बना जान पड़ता है और उनके ऊपर जाड्यकुंभ, कणिका, तथा अंतरपत्र हैं। उन्हें हीरक-प्रतिरूपों से युक्त आलों से अलंकृत किया गया है। इनके पार्श्व में अर्ध-स्तंभ हैं। ये पार्श्वनाथ-मंदिर जैसे हैं। पट्टिकाओं का अलंकरण बेल-बूटेदार हृदयाकार फूलों से किया गया है। पट्टिका का ऊपरी भाग जगती की ऊँचाई तक है।
अर्ध-मण्डप चार स्तंभों की चतुष्की पर आधारित है। ये स्तंभ एक अलंकृत कंभिका पर खड़े हैं जो एक उपपीठ पर आश्रित है। यह उपपीठ अष्टकोणीय है तथा इसपर पुष्पगुच्छ, कमलदल तथा वल्लरियों के अलंकरण हैं। कुंभिका पर खुर, कुंभ, कलश, सादा अंतरपत्र एवं कपोत, जो कुडुओं से अलंकृत हैं, के गोटे हैं। इसके स्तंभों के मध्यभाग नीचे अष्टकोणीय, बीच में षोडशकोणीय तथा ऊपर वर्तलाकार हैं। षोडशकोणीय भाग के ऊपर एक अष्टकोणीय मध्यबंध है जिसका अलंकरण कीर्तिमुखों से निकली मालाओं के अंतर्ग्रथित पाशों से किया गया है। इन पाशों में विद्याधर परिवेष्टित हैं जिन्हें अंजलि-मुद्रा में या मालाएँ लिये हुए या वाद्य-यंत्र बजाते हुए अंकित किया गया है। मध्यबंध की ऊपरी पट्टी की सज्जा उभरे लुमाओं से की गयी है। इस मध्यबंध से एक दीप बाहर निकला हुआ है और उसके निचले भाग पर एक भूत दृष्टिगोचर होता है । चारों स्तंभों में से प्रत्येक स्तंभ के आधार पर भी दीपाधार बाहर निकले हुए हैं।
प्रत्येक स्तंभ के वर्तुलाकार भाग में चार मध्यबंध हैं जिसमें से सबसे नीचे का मध्यबंध वर्तुलाकार है और उसका विस्तृत अलंकरण बड़े-बड़े माल्यपाशों तथा लंबी श्रृंखला और घण्टिकावाले ऐसे प्रतिरूपों द्वारा किया गया है जिनके पार्श्व में मालाएँ तथा पताकाएँ हैं; और कहीं-कहीं जिनका स्थान कीर्तिमुखों के मुखों से निकलकर झूलते हुए कमलनालों ने ले लिया है। माल्यपाशों में विद्याधर, तपस्वी,
1 [यहाँ प्राशय भगवान की माता के सोलह स्वप्नों से है.] 2 कनिंघम (ए). प्रायॉलॉजिकल सर्वे प्रॉफ इण्डिया, रिपोर्ट, II. 1871. शिमला. पृ 43.
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