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अध्याय 21 ]
पूर्व भारत प्रवेश-द्वारोंवाला मंदिर सर्वतोभद्र ही समुचित रूप से उपयुक्त है; अतः सर्वतोभद्र नाम अकारण नहीं है, अपितु वह इस प्रकार के मंदिर की समस्त विशेषताओं की स्वयमेव अभिव्यंजना करता है। सर्वतोभद्रिका और सर्वतोभद्र दोनों ही परस्पर साथ-साथ चलते प्रतीत होते हैं--एक दूसरे के पूरक हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वतोभद्र और सर्वतोभद्रिका नामों में पहले से कुछ विशेष संबंध रहा है। अतः यह मानना अनुपयुक्त न होगा कि चौमुखी प्रतिमाओं की समुचित प्रतिष्ठापना के लिए जैनों ने चौमुख मंदिरों का विकास किया है।
सर्वतोभद्र-मंदिर के विकास संबंधी हमारे उपरोक्त मत को चतुर्मखी प्रतिमाओं से तार्किक समर्थन मिलता है । ऐसा प्रतीत होता है कि जैनों ने चतुर्मुख प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना के लिए सादे एवं अलंकरणरहित सर्वतोभद्र-मंदिरों का विकास बहुत पहले ही कर लिया गया था। इन मंदिरों को जिस बाह्य संरचना से अलंकृत किया गया है, वह पूर्व-मध्यकाल की है। इस प्रकार के प्रारंभिक चौमुख मंदिरों में रनकपुर (राजस्थान) स्थित पंद्रहवीं शताब्दी का युगादीश्वर जैन मंदिर सर्वाधिक उल्लेखनीय है।
प्रारंभिक अवस्था के सादा एवं अलंकरणरहित चौमुख मंदिरों में कालांतर से प्रयुक्त बाह्य संरचनाओं के प्रावधान में निहित नयी संरचना को पहचानना कठिन नहीं है। बाह्य संरचनाओं में उत्तर-भारतीय मंदिर-स्थापत्य के प्रचलित लक्षणों तथा आमलक एवं कलश-मण्डित वक्राकार शिखरों को अपनाया गया है। इन मंदिरों ने नागर-शैली के शिखरों को अपनाकर भारतीय स्थापत्य को एक नया आयाम प्रदान किया। सर्वतोभद्रिका की अवधारणा ने बौद्धों के दो उपास्य मंदिरों में भी अभिव्यक्ति पायी है जिनमें से एक तो पाषाण-निर्मित है, जो दीनाजपुर (बांग्ला देश) से प्राप्त हुई है और दूसरी कांस्य-निर्मित है, जो झेवारी (जिला चटगाँव, बांग्ला देश) से प्राप्त हुई है (चित्र १६० क)। ये दोनों ही मंदिर के आकार के हैं तथा शिखरमण्डित हैं। इनकी चारों सतहों के अधोभागों पर देवकुलिकाएं निर्मित हैं, जिनमें चार प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित थीं, (देवकूलिकाएँ कांस्य नमूने की हैं और इस समय रिक्त हैं)। इसमें संदेह नहीं कि यह बौद्ध उपास्य स्थल जैन सर्वतोभद्रिका से प्रभावित है तथा सर्वतोभद्र की अभिकल्पना की प्रतिकृति है जिसमें चार प्रवेश-द्वारोंवाला यह मंदिर शिखरमण्डित होता है।
पूर्व-भारत में भारतीय स्थापत्य के इस नये आयाम ने जो लोकप्रियता प्राप्त की, उसे इस क्षेत्र में पाये गये मंदिरों में देखा जा सकता है। यद्यपि इस प्रकार के मंदिर बहुत ही कम मिले हैं लेकिन जो भी मिले हैं उनकी प्रतिमाओं में कुछ अतिशयता है । इस क्षेत्र के कुछ प्रसिद्ध चौमुख मंदिरों का चित्रांकन पाण्डुलिपि-चित्रों में भी पाया गया है । इस प्रकार के मंदिरों ने इस क्षेत्र से बाहर भी विकास पाया परन्तु इस प्रकार का कोई मंदिर अपने पूर्ण रूप में देश के किसी अन्य क्षेत्र में उपलब्ध नहीं है। चौमुख मंदिर के संभावित रूपाकार को समझने के लिए बर्मा के उन मंदिरों का उल्लेख किया जा सकता है जिसका निर्माण बौद्धों ने अपने उपयोग के लिए किया। बर्मा के इन मंदिरों में जैन सर्वतोभद्रिका को ही नहीं वरन् सर्वतोभद्र की अभिकल्पना को भी सुस्पष्ट और सुनिश्चित विधि से
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