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________________ वास्तु- स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई० [ भाग 5 होती हैं जिसमें प्रायः ऋषभनाथ, शांतिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर का अंकन होता है। कुछ चौमुख प्रतिमाओं की चारों सतहों पर एक ही तीर्थंकर का अंकन पाया गया है। विवेच्य कालखण्ड की अनेकानेक चौमुख प्रतिमाएँ पूर्व भारत से उपलब्ध हुई हैं। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी चौमुख प्रतिमाएँ भी प्राप्त हैं जो इनसे भी प्राद्यकालीन हैं । यहाँ पर दो चतुर्मुख प्रतिमाओं का उल्लेख किया जा सकता है जो पश्चिमी बंगाल के क्रमशः पुरुलिया और देवलिया ( जिला बर्दवान ) से प्राप्त हुई हैं और इस समय आशुतोष संग्रहालय में संरक्षित हैं। पहली चतुर्मुख प्रतिमा ( चित्र १५६ क ) ग्यारहवीं शताब्दी की है और दूसरी संभवतः इससे कुछ ही परवर्ती अवधि की । प्रत्येक प्रतिमा में उपरोक्त चारों तीर्थंकर अंकित हैं । प्रतिमा का शीर्षभाग नागरशैली के मंदिर - शिखर की भाँति वक्ररेखीय स्तूपाकार है। पहली चौमुख प्रतिमा में लांछनों के खण्डित हो जाने से किसी भी तीर्थंकर को पहचानना संभव नहीं है । दूसरी प्रतिमा के दो आसन पार्श्वो पर के अंकन से पार्श्वनाथ और महावीर को पहचाना जा सकता है। दूसरी प्रतिमा के शिखर ( चित्र १५६ ख ) पर आमलक और कलश हैं । यह शिखर अनुपात की दृष्टि से बौना है । पहली चतुर्मुख प्रतिमा का चुका है। फिर भी शिखर आकर्षक और लालित्यपूर्ण दिखाई देता है । इस प्रकार की अनेक चतुर्मुख प्रतिमाएँ पश्चिम बंगाल के विभिन्न भागों से प्राप्त हुई हैं जिनके शीर्ष नागर-शैली के शिखरों से मण्डित हैं । ये प्रतिमाएँ इस समय पश्चिम बंगाल की राजकीय पुरातत्त्वदीर्घा में देखे जा सकते हैं । श्रामलक तथा कलश नष्ट जैन कला के इस विशिष्ट प्रतिमा प्रतीक का संबंध एक दुर्लभ प्रकार के मंदिरों के विकास के साथ-साथ देखा जा सकता है । इस दुर्लभ प्रकार के मंदिरों का महत्त्वपूर्ण प्रतिबिंबन दक्षिण-पूर्व एशिया में भी पाया गया है । चतुर्मुख प्रतिमाओं का अंकन जैनों में अत्यंत प्रारंभिक काल से लोकप्रिय है । चतुर्मुख प्रतिमाओं का उल्लेख ईसा संवत् की प्रारंभिक शताब्दियों के अभिलेखों में प्रतिमासर्वतोभद्रका के नाम से प्राप्त होता है । सर्वतोभद्रिका का अर्थ है -- 'सर्वत्र कल्याणकारी' । यहाँ यह उल्लेख महत्त्वपूर्ण है कि जैनों ने चतुर्मुख प्रतिमा के रूप में एक ऐसी उपास्य प्रतिमा की अवधारणा कर उसका विकास किया है जिस प्रतिमा तक समस्त प्रसन्न दिशाओंों से पहुँचा जा सके और जिसके पीछे व्यावहारिक एवं तार्किक आधार हो । यह प्रतिमा स्वयं एक ऐसे मंदिर की रचना का संकेत देती है जिसमें चारों ओर चार ऐसे प्रवेश द्वार हों जिनमें से प्रत्येक तीर्थंकर प्रतिमा के सम्मुख खुलते हों । इस प्रकार का चौमुखा या सर्वतोभद्र मंदिर ही इस चतुर्मुख प्रतिमा के लिए उपयुक्त मंदिर हो सकता है । अतः जैनों ने इस प्रकार के मंदिर का विकास भी चतुर्मुख प्रतिमा के साथ-साथ ही किया । इस संदर्भ में यह उल्लेख भी उपयोगी रहेगा कि भारतीय शिल्प-विषयक साहित्य में मंदिर के एक ऐसे प्रकार का अनेक स्थानों पर उल्लेख है जिसे सर्वतोभद्र मंदिर कहा गया है । विभिन्न ग्रंथों में सर्वतोभद्र मंदिर के विवरण भिन्न-भिन्न प्रकार से किये गये हैं । ये समस्त विवरण इस तथ्य पर एकमत हैं कि इस मंदिर की योजना मूल रूप में वर्गाकार हो प्रवेश द्वार हो । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि चतुर्मुख प्रतिमा तथा प्रत्येक दिशा में एक-एक सर्वतोभद्रिका के लिए चार - Jain Education International 268 For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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