SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय 6 ] मथुरा स्तंभ, स्तंभ-शीर्ष, छत्र, वेदिका-स्तंभ, सूचियाँ, उष्णीष, तोरणखण्ड, तोरणशीर्ष टोड़े एवं अन्य वास्तुशिल्पीय कलाकृतियाँ निकली थीं, किन्तु, दुर्भाग्यवश, विचाराधीन अवधि का एक भी स्मारक इस समय उपलब्ध नहीं है। इन छिन्न-भिन्न शिलापट्टों से इस बात का आभास मिलता है कि धनाढ्य एवं धर्मनिष्ठ जैन संप्रदाय के लोगों द्वारा, जिनमें पर्याप्त संख्या में सामान्य महिला उपासक सम्मिलित थीं, निर्मित भव्य स्मारक मूर्तिकला एवं स्थापत्य की दृष्टि से कितने उत्कृष्ट थे। अनेक शिलापट्टों और मूर्तियों पर उत्कीर्ण शिलालेखों में केवल शासकों के नाम ही नहीं लिखे गये हैं अपितु उनसे जैन संघ के संगठन पर भी महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है, जो अनेक प्राचार्यों एवं मुनियों के विभिन्न गणों, कूलों और शाखाओं में संगठित था। यद्यपि फ्यूरर को १८८८ और १८६१ के बीच कंकाली टीले में अपने विशाल खोजकार्य के मध्य ईंटों के एक स्तूप और दो मंदिरों के अवशेष तथा प्रचुर संख्या में ईसा-पूर्व द्वितीय शताब्दी से लेकर ग्याहरवीं शताब्दी ईसवी तक के पुरावशेष प्राप्त करने में सफलता प्राप्त हुई थी, किन्तु वह भवनों के विस्तृत मानचित्र और छायाचित्रों के विवरण का उचित सूचीकरण कर सकने में असमर्थ रहा, क्योंकि उसका कार्य खुदाई द्वारा मुख्यतः पुरावशेषों, विशेषकर शिलालेखों को खोज निकालने तक ही सीमित रहा। उन पुरावशेषों का पूर्वापर संबंध क्या था और वे किन-किन भवनों के थे, इसका भी उसने कोई विवरण नहीं रखा । जैन वास्तु-स्मारकों के संबंध में ज्ञान प्राप्त करने के लिए इस आवश्यक सूचीकरण के अभाव में हमें स्वाभाविक रूप से विछिन्न स्मारकों के उत्कीर्ण प्रस्तरपट्टों पर शिल्पांकित रचनाओं के साक्ष्य पर ही निर्भर रहना पड़ता है।। उपलब्ध साक्ष्य से ऐसा प्रतीत होता है कि कंकाली टीले पर जैन प्रतिष्ठान एक ऐसे स्तूप के चारों ओर निर्मित हुआ था जो कि अत्यंत श्रद्धा एवं आदर की वस्तु बन गया था। वर्ष ७६ (१५७ ईसवी) या ४६ (१२७ ईसवी) के एक शिलालेख में, जो एक अज्ञात मूर्ति के पादपीठ पर अंकित है, तथाकथित देव-निर्मित वोद्व स्तूप पर अर्हत नन्द्यावर्त की मूर्ति के प्रतिष्ठापित किये जाने का उल्लेख है। इससे यह विदित होता है कि द्वितीय शताब्दी ईसवी के मध्य तक यह स्तूप इतना प्राचीन हो गया था कि इसके निर्माण संबंधी मूल तथ्यों को लोग पूर्णतः भूल गये थे और इसका निर्माण देवों द्वारा किया हुआ माना जाने लगा था। अनुमानतः सोमदेव ने अपने यशस्तिलक चम्पू में (६५६ ई०) एक स्तूप के निर्माण का विवरण देते समय इसी स्तूप का उल्लेख किया है क्योंकि उनके अपने समय में देव-निर्मित स्तूप के रूप में एक स्तूप विख्यात था। 1 विशाल कंकाली टीले के सुव्यवस्थित उत्खनन से कुछ भवनों की संरचना का पता लगने की संभावना है, यद्यपि पिछले उत्खननों से टीले को पर्याप्त क्षति पहुँची है. 2 ल्यूडर्स, पूर्वोक्त, क्रमांक 47. 3 कृष्णदत्त वाजपेयी ने इसे मुनिसुब्रत पढ़ा है : महावीर कम्मेमोरेशन वॉल्यूम. 1. आगरा. पृ 189-90. 55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy