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________________ प्रास्ताविक [ भाग 1 सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के त्रिविध मार्ग का अवलम्बन लेकर अपनी जीवनयात्रा करता है, और अपनी आध्यात्मिक प्रगति के पथ पर तबतक बढ़ता चला जाता है जबतक कि वह अपने लक्ष्य अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति नहीं कर लेता । वास्तव में, जैन धर्म में पूजनीय या पवित्र स्थान को तीर्थ (घाट) कहते हैं क्योंकि वह दुखों और कष्टों से पूर्ण संसार को पार करने में मुमुक्षु के लिए सहायक होता है और निरंतर जन्म-मरण के उस भ्रमण से मुक्त होने में भी सहायता देता है जो इस सहायता के बिना कभी मिट नहीं सकता । यही कारण है कि जैन तीर्थयात्रा का वास्तविक उद्देश्य आत्मोत्कर्ष है । कदाचित् इसीलिए जैनों ने अपने तीर्थक्षेत्रों के लिए जिन स्थानों को चुना, वे पर्वतों की चोटियों पर या निर्जन और एकांत घाटियों में जो जनपदों और भौतिकता से ग्रसित सांसारिक जीवन की आपाधापी से भी दूर, हरे-भरे प्राकृतिक दृश्यों तथा शांत मैदानों के मध्य स्थित हैं, और जो एकाग्र ध्यान और प्रात्मिक चिंतन में सहायक एवं उत्प्रेरक होते हैं । ऐसे स्थान के निरंतर पुनीत संसर्ग से एक अतिरिक्त निर्मलता का संचार होता है और वातावरण आध्यात्मिकता, अलौकिकता, पवित्रता और लोकोत्तर शांति से पुनर्जीवित हो उठता है । वहाँ वास्तु - स्मारकों (मंदिर - देवालयों आदि) की स्थापत्य कला और सबसे अधिक मूर्तिमान तीर्थंकर प्रतिमाएँ अपनी अनंत शांति, वीतरागता और एकाग्रता से भक्त तीर्थयात्री को स्वयं 'परमात्मत्व' के सन्निधान की अनुभूति करा देती है । आश्चर्य नहीं यदि वह पारमार्थिक भावातिरेक में फूट पड़ता है : 'चला जा रहा तीर्थक्षेत्र में अपनाए भगवान को । सुन्दरता की खोज में, मैं अपनाए भगवान को ।' तीर्थक्षेत्रों की यात्रा भक्त - जीवन की एक अभिलाषा है । ये स्थान, उनके कलात्मक मंदिर, मूर्तियाँ आदि जीवंत स्मारक हैं मुक्तात्माओं के, महापुरुषों के, धार्मिक तथा स्मरणीय घटनाओं के; इनकी यात्रा पुण्यवर्धक और ग्रात्मशोधक होती है, यह एक ऐसी सचाई है जिसका समर्थन तीर्थयात्रियों द्वारा वहाँ बिताये जीवन से होता है । नियम, संयम, उपवास, पूजन, ध्यान, शास्त्र-स्वाध्याय, धार्मिक प्रवचनों का श्रवण, भजन-कीर्तन, दान और आहारदान आदि विविध धार्मिक कृत्यों में ही उनका अधिकांश समय व्यतीत होता है । विभिन्न व्यवसायों और देश के विभिन्न प्रदेशों से आये आबाल-वृद्ध - नर-नारी वहाँ पूर्ण शांति और वात्सल्य से पुनीत विचारों में मग्न रहते हैं । यह एक तथ्य है कि भारत की सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध करनेवालों में जैन अग्रणी रहे हैं | देश के सांस्कृतिक भण्डार को उन्होंने कला और स्थापत्य की अगणित विविध कृतियों से संपन्न किया जिनमें से अनेकों की भव्यता और कला - गरिमा इतनी उत्कृष्ट बन पड़ी है कि उनकी उपमा नहीं मिलती और उनपर ईर्ष्या की जा सकती है । यह भी एक तथ्य है कि जैन कला प्रधानतः धर्मोन्मुख रही, और प्रत्येक पहलू की भाँति कला और स्थापत्य के क्षेत्र में भी उनकी विश्लेषात्मक कि वैराग्य की भावना भी इतनी अधिक परिलक्षित है कि परंपरागत जैन कला Jain Education International 38 For Private & Personal Use Only जैन जीवन के प्रायः दृष्टि और यहाँ तक में नीतिपरक अंकन www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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