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________________ अध्याय 4 जैन कला का उद्गम और उसकी आत्मा जैन धर्म का उद्देश्य है मनुष्य की परिपूर्णता अर्थात् संसारी आत्मा की स्वयं परमात्मत्व में परिणति । व्यक्ति में जो अन्तर्निहित दिव्यत्व है उसे स्वात्मानुभूति द्वारा अभिव्यक्त करने के लिए यह धर्म प्रेरणा देता है और सहायक होता है । सामान्यतः इस मार्ग में कठोर अनुशासन, आत्मसंयम, त्याग और तपस्या की प्रधानता है । किन्तु, एक प्रकार से कला भी 'दिव्यत्व की प्राप्ति का और उसके साथ एकाकार हो जाने का पवित्रतम साधन है,' और कदाचित् यह कहना भी अतिशयोक्ति न होगा कि 'धर्म के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि में यथार्थ कलाबोध जितना अधिक सहायक है उतना अन्य कुछ नहीं ।' संभवतया यही कारण है कि जैनों ने सदैव ललित कलाओं के विभिन्न रूपों और शैलियों को प्रश्रय एवं प्रोत्साहन दिया । कलाएँ, निस्सन्देह, मूलतः धर्म की अनुगामिनी रहीं किन्तु उन्होंने इसकी साधना की कठोरता को मृदुल बनाने में भी सहायता की। धर्म के भावनात्मक, भक्तिपरक एवं लोकप्रिय रूपों के पल्लवन के लिए भी कला और स्थापत्य की विविध कृतियों के निर्माण की आवश्यकता हुई, अतः उन्हें वस्तुतः सुन्दर बनाने में श्रम और धन की कोई कमी नहीं की गयी । जैन धर्म की आत्मा उसकी कला में स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित है, वह यद्यपि बहुत विविधतापूर्ण और वैभवशाली है परन्तु उसमें जो शृंगारिकता, अश्लीलता या सतहीपन का अभाव है, वह अलग ही स्पष्ट हो जाता है । वह सौंदर्यबोध के प्रानंद की सृष्टि करती है पर उससे कहीं अधिक संतुलित, सशक्त, उत्प्रेरक और उत्साहवर्धक है और आत्मोत्सर्ग, शांति और समत्व की भावनाओं को उभारती है । उसके साथ जो एक प्रकार की अलौकिकता जुड़ी है, वह प्राध्यात्मिक चिंतन एवं उच्च प्रात्मानुभूति की प्राप्ति में निमित्त है । Jain Education International विभिन्न शैलियों और युगों की कला एवं स्थापत्य की कृतियाँ समूचे देश में बिखरी हैं, परन्तु जैन तीर्थस्थल विशेष रूप से, सही अर्थों में कला के भण्डार हैं । और, एक जैन मुमुक्षु का आदर्श ठीक वही है, जो 'तीर्थयात्री' शब्द से व्यक्त होता है, जिसका अर्थ है ' ऐसा प्राणी जो सांसारिक जीवन में अजनबी की भाँति यात्रा करता रहता है । वह सांसारिक जीवन जीता है, अपने कर्त्तव्यों का पालन और दायित्वों का निर्वाह सावधानीपूर्वक करता है, तथापि उसकी मनोवृत्ति एक अजनबी द्रष्टा या पर्यवेक्षक की बनी रहती है । वह बाह्य दृश्यों से अपना एकत्व नहीं जोड़ता और न ही सांसारिक संबंधों और पदार्थों में अपने आप को मोहग्रस्त होने देता है । वह एक ऐसा यात्री है जो सम्यग्दर्शन 37 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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