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________________ प्रास्ताविक पड़ा था ।" भारत में मुस्लिम शासन के संभावित परिणामस्वरूप पंद्रहवीं शताब्दी के लगभग गुजरात के श्वेतांबर जैनों में स्थानकवासी संप्रदाय का उदय हुआ था । उसी अवधि में दिगंबर जैनों में तेरापंथ नाम का वैसा ही संप्रदाय अस्तित्व में आया । वर्तमान में भारत के अन्य भागों की अपेक्षा पश्चिम भारत, दक्षिणापथ और कर्नाटक में जैन धर्मानुयायियों की संख्या सर्वाधिक है । जहाँ दक्षिणी महाराष्ट्र और कर्नाटक में दिगंबर जैनों की बहुजलता है, वहाँ गुजरात में श्वेतांबर मूर्तिपूजक और पंजाब में स्थानकवासियों का प्राबल्य है । जैन धर्मानुयायियों में अधिकांशतः व्यापारी एवं व्यवसायी हैं, अतः यह समाज आर्थिक दृष्टि से सुसंपन्न है । इस समाज की आर्थिक संपन्नता उसके पर्व एवं पूजा - उत्सवों तथा मंदिरों के निर्माणों में प्रतिबिंबित होती है । ये प्रवृत्तियां आज भी विशाल स्तर पर चलती हैं । जैन धर्म के प्रसार के उपरोक्त विवरण से यह ज्ञात होता है कि जैन धर्म अपने जन्मस्थान बिहार से बाहर की ओर फैलता तो गया किन्तु एक अविच्छिन्न गति के साथ नहीं, विविध कारणों से उसका प्रतिफलन धाराओं या तरंगों के रूप में हुआ । जैन धर्म ने राज्याश्रय तथा व्यापारी वर्ग के संरक्षण पर मुख्यतया निर्भर रहने के कारण अपने पीछे मंदिरों, मंदिर- बहुल- नगरों, सचित्र पाण्डुलिपियों, अनगिनत मूर्तियों, तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में सर्वाधिक उल्लेखनीय अहिंसा के सिद्धांत की अद्भुत धरोहर छोड़ी है । 1 विस्तृत विवरण के लिए द्रष्टव्य : देव, पूर्वोक्त, पृ 135-36. 2- 3 [जैन - मूर्तिपूजक संप्रदाय संपा० ] Jain Education International - MEMEME [ भाग 1 WWW METEOFBBBB 36 For Private & Personal Use Only शांताराम भालचंद्र देव www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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