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________________ अध्याय 4 ] जैन कला का उद्गम और उसकी आत्मा अन्य अंकनों पर छा गया दिखता है, इसीलिए किसी-किसी को कभी यह खटक सकता है कि जैन कला में उसके विकास के साधक विशुद्ध सौंदर्य को उभारनेवाले तत्वों का अभाव है। उदाहरणार्थ, मानसार आदि ग्रंथों में ऐसी सूक्ष्म व्याख्याएँ मिलती हैं जिनमें मूर्ति-शिल्प और भवन-निर्माण की एक रूढ़ पद्धति दीख पडती है और कलाकार से उसी का कठोरता से पालन करने की अपेक्षा की जाती थी। किन्तु, यही बात बौद्ध और ब्राह्मण धर्मों की कला में भी विद्यमान है, यदि कोई अंतर है तो वह श्रेणी का है। जैन मूर्तियों में जिनों या तीर्थंकरों की मूर्तियाँ निस्संदेह सर्वाधिक हैं और इस कारण यह आलोचना तर्कसंगत लगती है कि उनके प्रायः एक-जैसी होने के कारण कलाकार को अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का अवसर कम मिल सका। पर इनमें भी अनेक मूर्तियाँ अद्वितीय बन पड़ी हैं, यथा- कर्नाटक के श्रवणबेलगोल की विश्वविख्यात विशालाकार गोम्मट-प्रतिमा, जिसके विषय में हैनरिख ज़िम्मर ने लिखा है : 'वह प्राकार-प्रकार में मानवीय है, किन्तु हिमखण्ड के सदृश मानवोत्तर भी, तभी तो वह जन्म-मरण के चक्र, शारीरिक चिंताओं, व्यक्तिगत नियति, वासनाओं, कष्टों और होनी-अनहोनी के सफल परित्याग की भावना को भलीभाँति चरितार्थ करती है।' एक अन्य तीर्थंकरमूर्ति की प्रशंसा में वह कहता है : 'मुक्त पुरुष की मूर्ति न सजीव लगती है न निर्जीव, वह तो अपूर्व, अनंत शांति से अोतप्रोत लगती है।' एक अन्य द्रष्टा कायोत्सर्ग तीर्थंकर-मूर्ति के विषय में कहता है कि 'अपराजित बल और अक्षय शक्ति मानो जीवंत हो उठे हैं, वह शालवृक्ष (शाल-प्रांशु) की भाँति उन्नत और विशाल है।' अन्य प्रशंसकों के शब्द हैं 'विशालकाय शांति', 'सहज भव्यता', या परिपूर्ण काय-निरोध की सूचक कायोत्सर्ग मुद्रा जिससे ऐसे महापुरुष का संकेत मिलता है जो अनंत, अद्वितीय केवल-ज्ञानगम्य सुख का अनुभव करता है और ऐसे अनुभव से वह उसी प्रकार अविचलित रहता है जिस प्रकार वायु-विहीन स्थान में अचंचल दीप-शिखा ।। इससे ज्ञात होता है कि तीर्थंकर मूर्तियाँ 1 तुलनीय : जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ज्ञान-विज्ञान-तृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः । समं काय-शिरो-ग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् । यथा दीपो निवातस्थो नेङ गते सोपमा स्मृता योगिनो यत-चित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः । (भगवद्गीता, अध्याय 6, श्लोक 7, 8, 13 और 19. ) प्राजानु-लम्ब-बाहुः श्रीवत्साङक: प्रशान्त-मूर्तिश्च दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कार्योहतां देवः । (वराहमिहिर कृत बृहत्संहिता, बंगलोर, 1947, 58, 45.) शान्त-प्रसन्न-मध्यस्थ-नासाग्रस्थाविकार-दक् सम्पूर्ण-भाव-रूपानुविद्धाङ गं लक्षणान्वितम् । रौद्रादि-दोष-निमुक्तं प्रातिहार्याङक-यक्ष-युक् निर्माण्य विधिना पीठे जिन-बिम्बं निवेशयेत् । ( आशाधर कृत प्रतिष्ठासारोद्धार, 63, 64. मानसार तथा अन्य ग्रंथ भी द्रष्टव्य.) 39 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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