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________________ प्रास्ताविक [ भाग 1 बड़ी संख्या में जैन धर्मानुयायी थे, क्योंकि दान देनेवालों में कोषाध्यक्ष, गंधी, धातुकर्मी (लुहार, ठठेरे आदि), गोष्ठियों के सदस्य, ग्राम-प्रमुख, सार्थवाहों की पत्नियाँ, व्यापारी, नर्तकों की पत्नियाँ, स्वर्णकार तथा गणिका जैसे वर्गों के व्यक्ति संमिलित थे। इन शिलालेखों में विभिन्न गणों, कूलों शाखाओं तथा संभागों का भी उल्लेख है जिनसे ज्ञात होता है कि जैनसंघ सुगठित एवं सुव्यवस्थित था । तीर्थंकरों की अनेक प्रतिमाओं की प्राप्ति से यह भी सिद्ध होता है कि इस काल तक मूर्तिपूजा पूर्णरूपेण स्थापित एवं प्रचलित हो चुकी थी। ईसा सन् की प्रारंभिक शताब्दियों में सौराष्ट्र में जैन धर्म की प्रवृत्ति का अनुमान, कुछ विद्वानों के अनुसार, जूनागढ़ के निकट बाबा-प्यारा मठ में पाये गये जैन-प्रतीकों से लगाया जा सकता है। किन्तु यह साक्ष्य पूर्णतया विश्वासप्रद नहीं है । क्षत्रप शासक जयदामन के पौत्र के जूनागढ़वाले शिलालेख में केवलज्ञान' शब्द का प्रयोग हुअा है, जो वस्तुत: एक जैन पारिभाषिक शब्द है। इससे विदित होता है कि काठियावाड़ में जैन धर्म का अस्तित्व कम से कम ईसा सन् की प्राथमिक शताब्दियों से रहा है। प्रोफेसर सांकलिया ने इस संबंध में वर्तमान राजकोट जिलांतर्गत गोंडल से प्राप्त तीर्थंकर-प्रतिमाओं का उल्लेख किया है। जिनका समय वह सन् ३०० के लगभग निर्धारित करते हैं। इससे आगे की शताब्दियों में गुजरात में जैन धर्म का प्रबल प्रभाव रहा, यह इस बात से स्पष्ट है कि वलभी में दो सम्मेलन (संगीतियाँ) आयोजित हुए थे, जिनमें से प्रथम चौथी शताब्दी में तथा द्वितीय पाँचवीं शताब्दी में हुए बताये जाते हैं, किन्तु इन सम्मेलनों की तिथियों के विषय में मतैक्य नहीं है। ___ इस प्रकार यह प्रतीत होता है कि ईसा सन् के आरंभ होने तक तथा उसकी प्रारंभिक शताब्दियों में जैन धर्म का कार्यक्षेत्र पूर्वी भारत से मध्य एवं पश्चिम भारत की ओर स्थानांतरित हो गया था। उत्तर भारत में कुषाणों के पतनोपरांत गुप्त-शासकों ने ब्राह्मण धर्म को पुनरुज्जीवित एवं संगठित करने में सहायता दी। तथापि यह मानना सदोष होगा कि उस काल में जैन धर्म का गत्यवरोध हुआ । यद्यपि गुप्त-शासक मूलतः वैष्णव थे तथापि उन्होंने उल्लेखनीय धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया। अब यह विदित है कि प्रारंभिक गुप्त-शासक रामगुप्त के समय में तीर्थकर-प्रतिमाओं 1 देव, पूर्वोक्त, पृ 101. 2 बर्जेस (जेम्स). रिपोर्ट ऑन दि एंटीक्विटीज प्रॉफ़ काठियावाड़ ऐण्ड कच्छ. आयॉलॉजिकल सर्वे ऑफ वेस्टर्न इडिया, न्यू इंपीरियल सीरीज़. 1876. लंदन. / सांकलिया (एच डी). प्रायॉलॉजी ऑफ गुजरात. 1941. बम्बई. पृ 47-53. 3 ऐपीनाफिया इण्डिका. 16; 1921-22; 239. 4 सांकलिया, पूर्वोक्त, 1941, पृ 233. 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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