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अध्याय 3 ]
जैन धर्म का प्रसार गंग राजाओं की भाँति कदम्ब राजा (चौथी शती ई० से) भी जैन धर्म के संरक्षक थे। काकुत्स्थवर्मन, मृगेशवर्मन, रविवर्मन एवम् देववर्मन के शासनकालों के शिलालेख कदम्ब राज्य में जैन धर्म की लोकप्रियता के साक्षी हैं। इन अभिलेखों में श्वेतपटों, निग्रंथों तथा कूर्चकों (नग्न तपस्वियों) के उल्लेख हैं जो कि विभिन्न साधुसंघों में संगठित रहे प्रतीत होते हैं। ये अभिलेख देवप्रतिमाओं की घृत-पूजा जैसी कतिपय प्रथाओं का भी उल्लेख करते हैं ।।
ऐसे भी कुछ साक्ष्य मिले हैं जिनसे विदित होता है कि सुदूर दक्षिण के कतिपय चेरवंशीय नरेश भी जैन आचार्यों के संरक्षक रहे थे। गुएरिनॉट ने चोल शासनकाल के कुछ शिलालेखों का विवरण दिया है जिनमें जैन संस्थाओं के लिए भूमि प्रदान किये जाने का उल्लेख मिलता है।
___ अब हम पुनः मध्य एवं उत्तर भारत में जैन धर्म के प्रसार की स्थिति पर विचार करेंगे। ऐसी अनुश्रुति है कि ईसा-पूर्व प्रथम शताब्दी के लगभग उज्जैन में सुप्रसिद्ध विक्रमादित्य का उदय हुआ था जिसे प्रसिद्ध जैनाचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने जैन धर्म में दीक्षित किया था। प्रसिद्ध कालकाचार्य कथानक से विदित होता है कि किस प्रकार उक्त आचार्य ने पश्चिम और मध्यभारत में शकराज का प्रवेश कराया था। इस प्रकार यह प्रतीत होता है कि मध्य भारत और दक्षिणापथ में, जहां जैन धर्म का प्रथम संपर्क संभवतः चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में हुआ था, जैन धर्म की प्रवृत्ति किन्हीं अंशों में बनी रही। इसका समर्थन हाल ही में पूना जिले में प्राप्त ईसा-पूर्व द्वितीय शताब्दी के एक जैन गुफा-शिलालेख से होता है।
उत्तर भारत में मथुरा जैन धर्म का महान् केन्द्र था। जैन स्तूप के अवशेष तथा साथ में प्राप्त शिलालेख, जिनमें से कुछ ईसा-पूर्व द्वितीय शताब्दी तक के हैं, मथुरा क्षेत्र में जैन धर्म की संपन्न स्थिति की सूचना देते हैं। मथुरा स्थित कंकाली टीले के उत्खनन से ईंट-निर्मित स्तुप के अवशेष, तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ, उनके जीवन की घटनाओं के अंकन से युक्त मूर्तिखंड, आयागपट, तोरण तथा वेदिका-स्तंभ आदि प्रकाश में आये हैं जो अधिकांशतः कुषाणकालीन हैं। व्यवहारभाष्य (५,२७) के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि मथुरा में एक रत्नजटित स्तूप था तथा मथुरानिवासी जैन धर्म के अनुयायी थे और वे अपने घरों में तीर्थंकर प्रतिमाओं की पूजा करते थे।
मथरा से प्राप्त ये साक्ष्य जैन धर्म के विकास के इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। अनेकानेक शिलालेख यह तथ्य प्रकट करते हैं कि तत्कालीन समाज के व्यापारी तथा निम्न वर्ग के व्यक्ति बहत
1 विस्तृत विवरण के लिए द्रष्टव्य : मोरेस (जॉर्ज एम). कदम्बकुल. 1931. बम्बई. पृ 254-55. 2 जैन एण्टीक्वेरी. 12, 2; 1946-47; 74. 3 गुएरिनॉट (ए).रिपरटॉयर द ऐपीग्राफिए जैन. 1908. पेरिस. संख्या 167,171 तथा 478. 4 क्लाट (जोहन्स). इण्डियन एण्टीक्वेरी. 11; 1882; 247 और 251. 5 यह सूचना प्रोफेसर एच डी सांकलिया के सौजन्य से प्राप्त हुई है.
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