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________________ अध्याय 3 ] जैन धर्म का प्रसार की प्रतिष्ठा हई थी। कुमारगुप्त के शासनकाल में उत्कीर्ण उदयगिरि गुफा के शिलालेख में पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठापना का उल्लेख मिलता है। मथुरा के एक शिलालेख में एक श्राविका द्वारा कोट्टियगण के अपने गुरु के उपदेश से एक प्रतिमा की स्थापना कराये जाने का उल्लेख है । कुमारगुप्त के उतराधिकारी स्कंदगुप्त के शासनकाल से भी संबंधित इस प्रकार की सामग्री प्राप्त हुई है। कहाऊँ स्तंभ के लेख में, जो कि सन् ४६०-६१ का है, मद्र नामक व्यक्ति द्वारा पाँच तीर्थंकर मूर्तियों की प्रतिष्ठापना का वर्णन है । इन यत्र-तत्र बिखरे साक्ष्यों में उस विवरण को भी सम्मिलित किया जा सकता है जो कि बाँग्लादेश में पहाड़पुर से प्राप्त ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण है और बुधगुप्त के शासनकाल का है । उसमें एक ब्राह्मण दंपति द्वारा एक जैन विहार की आवश्यकताओं की संपूर्ति के लिए भूमि-दान का उल्लेख है। इस संदर्भ में हैवेल का यह कथन उद्धरणीय है कि : 'गुप्त सम्राटों की राजधानी ब्राह्मण संस्कृति का केन्द्र बन गयी थी, किन्तु जन-सामान्य अपने पूर्वजों की धार्मिक परंपराओं का ही पालन करता था, और भारत के अधिकांश भागों में बौद्ध एवं जैन विहार सार्वजनिक विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के रूप में कार्य कर रहे थे। परवर्ती इतिहास उत्तर भारत में गुप्त-साम्राज्य के पतनोपरांत हर्षवर्धन के राज्यारंभ तक का इतिहास धूमिलसा है । यद्यपि हर्ष का बौद्ध धर्म से घनिष्ठ संबंध था, तथापि जैसा कि जैन गृहस्थों द्वारा बिहार के जैन संस्थानों को दिये गये दानों से ज्ञात होता है, जैन धर्म ने इस काल में अपना अस्तित्व बनाये रखा । यों उसकी स्थिति दुर्बल ही रही। हर्ष के परवर्ती काल में जैन धर्म ने राजपूताना, गुजरात और मध्य भारत में प्रसार पाया। देवगढ़ से प्राप्त प्रतीहारकालीन कतिपय शिलालेख सन ८६२ के लगभग वहाँ एक स्तंभ के स्थापित किये जाने का उल्लेख करते हैं। देवगढ़ में जैन मंदिरों के एक समूह के अवशेष तथा बड़ी 1 फ्लीट (जे एफ). इंस्क्रिपसन्स प्रॉफ दि अली गुप्ता किंग्स. कोर्पस इंस्क्रिप्श्नम इण्डिकेरम. 3. 1888. कलकत्ता. पृ 258. 2 ऐपोग्राफिया इण्डिका. 2; 1894; 210. 3 फ्लीट, पूर्वोक्त, पृ 66-67. 4 ऐपीग्राफिया इण्डिका . 20; 1929-30; 59. 5 उद्धरण : देव, पूर्वोक्त, पृ 104 . 6 ग्लासेनेप (एच वी). और जैनिज्मस (गुजराती अनुवाद). पृ 46. 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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