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________________ प्रास्ताविक [ भाग 1 पिता था। मुद्राराक्षस नाटक में वर्णन मिलता है कि जैन साधुओं को राजा नन्द का विश्वास प्राप्त था। संभवतः इसीलिए चाणक्य ने नन्द को राजपद से हटाने के लिए एक जैन साधु की सेवाओं का उपयोग किया था। साहित्यिक साक्ष्यों से कहीं अधिक विश्वसनीय ईसा-पूर्व प्रथम शताब्दी (कुछ विद्वानों के अनुसार द्वितीय शताब्दी) में हुए कलिंग के शासक चेतिवंशीय महाराजा खारवेल के शिलालेख का साक्ष्य उपलब्ध है । इस अभिलेख के अनुसार यह नरेश अपने शासन के बारहवें वर्ष में कलिंग की तीर्थकर प्रतिमा को जिसे मगध का नन्दराज लूटकर ले गया था, वापस कलिंग ले आया था। इससे स्पष्ट है कि नन्दों के समय तक जैन धर्म का प्रसार कलिंग देश पर्यंत हो चुका था । व्यवहारभाष्य में भी राजा तोसलिक का उल्लेख प्राप्त होता है जो तोसलि नगर में विराजमान एक तीर्थंकर-प्रतिमा की मनोयोगपूर्वक रक्षा में दत्तचित्त था। नन्दों के उत्तराधिकारी मौर्यवंशीय राजाओं में से कई जैन धर्म के प्रश्रयदाता रहे प्रतीत होते हैं। उदाहरणार्थ एक अविच्छिन्न जैन अनुश्रुति के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य का जैन धर्म की ओर दृढ़ झुकाव था। अनुश्रुति है कि भद्रबाहु नामक सुप्रसिद्ध जैनाचार्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में मगध में द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष की भविष्यवाणी की थी और वह अपने परम शिष्य चन्द्रगुप्त के साथ दक्षिण भारत की ओर विहार कर गये थे तथा यह भी कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने सल्लेखना व्रतपूर्वक समाधिमरण किया था । यह कहा जा सकता है कि इस प्रसंग से संबंधित शिलालेखीय साक्ष्य सन् ६५० जितना प्राचीन है। चन्द्रगुप्त के समय में जैन मुनियों की उपस्थिति के समर्थन में कुछ विद्वान् चन्द्रगुप्त की राजसभा में आये यूनानी राजदूत मैगस्थनीज द्वारा किये गये श्रमणों के उल्लेख को प्रस्तुत करते हैं। यदि हम शिलालेख में उल्लिखित अनुश्रुति को, इतनी परवर्ती होने पर भी, स्वीकार करते हैं तो उससे यह सिद्ध होता है कि दक्षिण भारत में चौथी शताब्दी ईसा-पूर्व में ही जैन धर्म का प्रसार हो चुका था। चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारी बिन्दुसार के विषय में जैन स्रोत मौन हैं। बिन्दुसार के उत्तराधिकारी अशोक के विषय में तो यह सुविदित ही है कि वह बौद्ध धर्म का प्रबल पक्षधर था । कदाचित् इसीलिए जैन स्रोत अशोक के विषय में पूर्णतया मौन हैं । कुछ विद्वान् अशोक की अहिंसापालन विषयक विज्ञप्तियों और सर्वधर्म-समभाव की घोषणा में आवश्यकता से अधिक अर्थ निकालने की चेष्टा करते हैं। ये तो मात्र अशोक की नैतिक उदारता और सहिष्णुता की भावना के परिचायक हैं, क्योंकि उसने ये आदेश प्रसारित किये थे कि ब्राह्मणों, श्रमणों, निग्रंथों और आजीविकों को उचित सम्मान और सुरक्षा प्रदान की जाये। किन्तु, जैन ग्रंथ अशोक के पुत्र कुणाल के विषय में, जो उज्जयिनी प्रदेश का राज्यपाल था, अधिक विशद विवरण देते हैं। बाद के वर्षों में उसने अपने पिता अशोक को प्रसन्न करके उनसे यह 1 ऐपीग्राफिया कर्नाटिका. 2. संशोधित संस्करण. 1923. पृ 6-7. इंस्क्रिप्शन 31. 26 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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