________________
जैन धर्म का प्रसार
धध्याय 3 ]
प्रभाव-क्षेत्र का निर्णय करना दुष्कर है । यह तो सुविदित है कि आजीविकों का अस्तित्व अशोक के समय में और उसके भी उपरान्त रहा ।
महावीर के ग्यारह मुख्य शिष्य या गणधर थे जिन्होंने जैन संघ को उपयुक्त रूप में अनुशासित रखा था । ये सभी गणधर ब्राह्मण थे जो बिहार की छोटी-छोटी बस्तियों से आये प्रतीत होते हैं । उनमें मात्र दो गणधर राजगृह और मिथिला - जैसे नगरों से आये थे । इससे यह पुनः प्रमाणित होता है कि महावीर के जीवनकाल में जैन धर्म का प्रसार, विस्तार पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों तक ही सीमित रहा ।
महावीर के संगठन - कौशल तथा उनके गणधरों की निष्ठा ने जैन संघ को सुव्यवस्थित बनाये रखा । किन्तु, महावीर के जीवनकाल में ही बहुरय तथा जीवपएसिय नामक दो पृथक् संघ गठित हुए बताये जाते हैं । यद्यपि उन्हें कोई विशेष समर्थन प्राप्त हुआ नहीं लगता । अंत में दिगंबर - श्वेतांबर नामक संघभेद ही ऐसा हुआ जिसने जैन धर्म के विकास क्रम, प्रसार क्षेत्र, मुनिचर्या और प्रतिमा-विज्ञान को प्रभावित किया । 1
महावीरोपरांत का सहस्राब्द
दिगंबर- श्वेतांबर संघभेद के प्रसंग में ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में दक्षिण भारत में जैन धर्म के प्रसार का उल्लेख मिलता है। परंतु इसपर चर्चा करने के पूर्व हम महावीर के निर्वाणोपरांत तथा मौर्यों से पूर्व के युग में उत्तर भारत में जैन धर्म के प्रसार का लेखा-जोखा ले लें ।
ईसा पूर्व की चौथी शताब्दी में हुए नन्दों के कतिपय पूर्वजों का महावीर के साथ कुछ संबंध रहा प्रतीत होता है । अनुश्रुति है कि महाराज सेणिय बम्भसार (बिम्बिसार ) और उसका पुत्र कूणिय या अजातसत्तु (अजातशत्रु) महावीर के भक्त थे । अजातशत्रु के शासनकाल में ही गौतम बुद्ध और महावीर के निर्वाण हुए। किन्तु यदि महावीर का निर्वाण ईसा पूर्व ५२७ और बुद्ध का ४८७ या ४८३ में हुआ मानें तो इस कथन को सिद्ध करने में कठिनाई आती है । बौद्ध ग्रंथों में इस नरेश के प्रति की गयी निन्दा से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इसका झुकाव जैन धर्म की ओर था । यही बात उसके उत्तराधिकारी उदायी के विषय में कही जा सकती है, जिसके द्वारा पाटलिपुत्र में एक जैन मंदिर का निर्माण कराया गया बताया जाता है तथा जिसके राजमहल में जैन साधुनों का निर्बाध रूप से आना-जाना था । यद्यपि पाटलिपुत्र में उक्त मंदिर के अस्तित्व का कोई पुरातात्त्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है तथापि यह संभावना है कि इस नरेश के समय में यह प्रसिद्ध राजधानी जैन धर्म का केन्द्र बन गयी थी ।
उसके उत्तराधिकारी नन्द राजाओं ने भी जैन धर्म को अल्पाधिक संरक्षण प्रदान किया प्रतीत होता है । एक अनुश्रुति के अनुसार नवम नन्द का जैन मंत्री सगडाल सुप्रसिद्ध जैनाचार्य स्थूलभद्र का
1 विस्तृत विवरण के लिए द्रष्टव्य : देव (एस बी ). हिस्ट्री श्रॉफ जैन मॉनकिज्म 1956. पूना. पृ 80 तथा परवर्ती..
Jain Education International
25
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org