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अध्याय 3 ]
जैन धर्म का प्रसार प्रार्थना की थी कि राज्य उसे दे दिया जाये। कहा जाता है कि अशोक ने कुणाल के पुत्र सम्प्रति को मध्य भारत स्थित उज्जैन में अपने प्रतिनिधि के रूप में राजा नियुक्त किया था और कुणाल ने कालांतर में समूचे दक्षिणापथ को विजित कर लिया था। अशोक की मृत्यु के उपरांत सम्प्रति उज्जैन पर और दशरथ पाटलिपुत्र पर शासनारूढ़ रहे प्रतीत होते हैं।
सम्प्रति ने जैन धर्म के प्रसार में प्रभूत योग दिया। साहित्यिक साक्ष्यों के अनुसार वह पार्य सुहस्ति का शिष्य था और जैन साधुओं को भोजन एवं वस्त्र प्रदान करता था। यदि यह सत्य है तो इसका अर्थ है कि ईसा-पूर्व तीसरी शताब्दी के अंत तक जैन धर्म मध्य प्रदेश में प्रसार पा चुका था। सम्प्रति को उज्जैन प्रांत में जैन पर्वो के मानने तथा जिन-प्रतिमा-पूजोत्सव करने का श्रेय दिया जाता है । बृहत्-कल्पसूत्र-भाष्य के अनुसार उसने अन्द (आँध्र), दमिल (द्रविड़), महरट्ट (महाराष्ट्र) और कुडुक्क (कोड़गु) प्रदेशों को जैन साधुओं के विहार के लिए सुरक्षित बना दिया था।
मौर्यकाल में जैन धर्म का जन-साधारण पर प्रभाव था, इसका समर्थन पटना के निकटवर्ती लोहानीपुर से प्राप्त जिन-बिम्ब के धड़ से भी होता है । यद्यपि सम्प्रति को अनेक जैन मंदिरों के निर्माण कराने का श्रेय दिया जाता है परंतु आज इन मंदिरों का कोई भी अवशेष प्राप्त नहीं है जो इस तथ्य की पुष्टि कर सके ।
प्रथम शताब्दी ईसा-पूर्व के कलिंग-नरेश चेतिवंशीय खारवेल का उल्लेख हम पहले (पृष्ठ २६) कर चुके हैं, जो उस कलिंग-जिन-बिम्ब को पुनः अपनी राजधानी (कलिंग) में ले आया था जिसे लूटकर नन्दराज मगध ले गया था। उड़ीसा में भुवनेश्वर की निकटवर्ती पहाड़ियों में स्थित हाथीगुफा में प्राप्त खारवेल का शिलालेख जैन धर्म के विषय में भी प्रसंगत: रोचक विवरण प्रस्तुत करता है । यह शिलालेख अर्हतों एवं सिद्धों की वंदना से प्रारंभ होता है और यह भी सूचित करता है कि खारवेल ने चौंसठ-अक्षरी सप्तांगों को संकलित कराया था जो मौर्यकाल में नष्ट हो गये थे। इससे स्पष्ट है कि खारवेल जैन धर्म के साथ सक्रिय रूप से संबद्ध था।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है (पृष्ठ २५), जैन धर्म के समस्त निन्हवों (भिन्न मतसंप्रदाय) में दिगंबर-श्वेतांबर मतभेद ही गंभीरतम था क्योंकि इसी के कारण जैन धर्म स्थायी रूप से दो आम्नायों में विभक्त हो गया। उक्त मतभेद के जन्म के विषय में दिगंबर एवं श्वेतांबरों द्वारा दिये गये कथानकों के विस्तार में जाना यहाँ अधिक समीचीन नहीं है, मात्र इतना कहना पर्याप्त होगा कि दिगंबर-ग्राम्नाय के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष ने जैन मुनिसंघ के एक भाग को आचार्य भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण-भारत की ओर विहार कर जाने के लिए विवश किया और जो मुनि मगध में ही रह गये थे उन्हें खण्डवस्त्र धारण करने की छूट दे दी गयी। ये अर्द्ध-फालक मुनि ही श्वेतांबरों के पूर्व रूप थे। इसके विपरीत श्वेतांबरों का कहना है कि शिव
1 बृहत्-कल्पसूत्र-भाष्य. 3. 3275-89.
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