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________________ अध्याय 14 ] उत्तर भारत एक और मूल्यवान निर्मिति के खण्डित भाग पर, जो संभवतः मूल रूप से मथुरा के किसी तोरण-सरदल का भाग था, एक देवकूलिका उत्कीर्ण है। उसके भीतर एक तीर्थकर-प्रतिमा तथा एक पार्श्व में मकर (चित्र ८० ख) उत्कीर्ण है। देवकुलिका का शिखर यद्यपि स्थूल रूप में निर्मित है, उसकी आकृति भूमियों में विभक्त त्रि-रथ तथा शुकनास से युक्त है, जिसमें त्रिकूट तोरण द्रष्टव्य है। लखनऊ संग्रहालय में प्रतीहारकाल की अन्य महत्त्वपूर्ण जैन मूर्तियों में कायोत्सर्ग-मुद्रा में तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ, श्रावस्ती से प्राप्त पार्श्वनाथ की प्रतिमा और आगरा के निकट बटेश्वर से प्राप्त कुछ प्रतिमाएँ हैं, जिनमें सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएँ भी सम्मिलित हैं । इलाहाबाद संग्रहालय में उत्तर भारत की जैन प्रतिमाओं की संख्या बहुत अधिक नहीं है। वहाँ सुरक्षित प्रतिमाओं में से अधिकांश कौशांबी से प्राप्त हुई हैं। पूर्व-मध्यकालीन जैन मूर्ति-कला का एक रोचक उदाहरण है - जैन परिरक्षक युगल जो आठवीं शताब्दी के लगभग का है और इलाहाबाद जिले के लच्छगिर नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। बलुए शिलापट्ट पर उत्कीर्ण इस मूर्ति में अशोक वृक्ष के नीचे अर्धपर्यंकासन में विराजमान देव-देवियों को दर्शाया गया है। अशोक वक्ष के मध्य में तने के ठीक ऊपर एक छोटी-सी तीर्थंकर-प्रतिमा है। दोनों देवताओं के दाहिने हाथ अभयमुद्रा में हैं। उनके शरीरों पर सामान्य प्रयोग के आभूषण हैं और निचले भाग में धारीदार धोती है। एक देवी, जिसने यज्ञोपवीत भी धारण किया हुआ है, अपनी गोद में एक शिश को लिये हए है। आधारपट्ट के ऊपर छह प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की गयी हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह मूर्ति, जिसपर गुप्त-कला-परंपरा का प्रभाव है, पांचिका तथा हारिती बौद्ध प्रतिमाओं के आदर्श पर प्रतिरूपित की गयी है। अन्य प्रतिमाओं में तीर्थंकरों तथा सर्वतोभद्रिका प्रतिमा की कुछ प्रतिनिधि मूर्तियाँ सम्मिलित हैं। सर्वोत्कृष्ट तीर्थकर-मूर्ति वह है जिसमें चंद्रप्रभ को पारंपरिक सिंहासन पर अवस्थित कमलपुष्प पर आसीन दिखाया गया है। तीर्थंकर के निम्न, मध्य तथा ऊपरी भागों पर क्रमश: यक्ष, यक्षी तथा भक्तजन अवस्थित हैं। कमलपत्रों तथा कुटिल-पत्रावली से सज्जित दोनों पाश्वों पर मेघों की विरुद्ध दिशा में उड़ते हुए लंबे आकार के चमरधारियों और विद्याधरों को दर्शाया गया है। इस मूर्ति का किरणोद्दीप्त वृत्त गुप्त-काल के अलंकृत प्रभामण्डल का स्मरण दिलाता है। एक और आसनस्थ तीर्थकर-प्रतिमा शांतिनाथ की हो सकती है। क्योंकि इसके पादपीठ पर परंपरागत बौद्ध धर्म-प्रतीक चक्र के दोनों ओर हरिण अंकित हैं। पाश्र्वो पर उत्कीर्ण अनुचरों की प्राकृतियों में चमरधारी, हाथी-सवार और उड़ते हुए विद्याधरों की मतियाँ ऐसा प्रतीत होता है कि तीसरी तीर्थकर मूर्ति पद्मासन-मुद्रा में मुनिसुव्रत की है। तीर्थंकर-प्रतिमा 157 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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