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________________ वास्तु -स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई० [ भाग 4 है। तीर्थंकर-मूर्ति सिंहासन पर स्थापित कमलपुष्प पर विराजमान है। मध्यदेश के कुछ अनुगामी देवताओं को भी कमलपुष्पों पर अंकित किया गया है। तीर्थंकरों के पार्श्वभागों में स्थित गौण देवताओं को पाँच पंक्तियों में अंकित किया गया है। सबसे निचली पंक्ति में यक्ष और यक्षी तथा उनके ऊपर की पंक्तियों में प्रभामण्डलयुक्त चमरधारी अंकित हैं। ऊपर की तीन पंक्तियों में संभवतः उच्चतर क्षेत्रों के देवों का प्रतिनिधित्व किया गया है, जिनमें विद्याधर भी सम्मिलित हैं। पादपीठ के मध्यभाग में धर्म-चक्र तथा हरिण-प्रतीक अंकित हैं । जैसा कि भट्टाचार्य का सुझाव है', हरिण-चिह्न से युक्त इस प्रतिमा को शान्तिनाथ का माना जा सकता है । देवी-प्रतिमाओं में, अपने वाहन गरुड़ पर स्थापित कमलपुष्प पर खड़ी हुई दस भुजाओं वाली चक्रेश्वरी की मूर्ति उल्लेखनीय है (चित्र ७८)। उसके दोनों पाश्वों पर दो सेविकाएँ और विद्याधर उत्कीर्ण किये गये हैं। यह मूर्ति प्रखर से प्राप्त हुई है। इनमें सर्वाधिक उत्कृष्ट और जटिल, दसवीं शताब्दी की अंबिका की मूर्ति है, जिसमें वह अपने परिवार-देवताओं सहित अंकित की गयी है। मूर्ति के शीर्षभाग में पद्मासनस्थ तीर्थंकर-प्रतिमा की रचना की गयी है । देवी अर्धपर्यक-मुद्रा में विराजमान हैं और अपनी गोद में एक शिशु को बैठाये हुई हैं, दूसरा शिशु उनके दाहिने घुटने को स्पर्श करता हुआ उनके सन्निकट खड़ा है। नीचे वाहन सिंह अंकित है। उनके दोनों पाश्ों पर चमरधारी, गणेश तथा कुबेर अवस्थित हैं । शीर्ष भाग पर नेमिनाथ के दोनों पार्यों में कृष्ण (विष्णु के रूप में) और बलराम अंकित हैं, क्योंकि अनुश्रुति के अनुसार वे तीनों एक ही परिवार के हैं। इसके अतिरिक्त इन तीनों को, तीर्थकर, बलभद्र और वासुदेव के रूप में प्रेसठ शलाका-पुरुषों में गिना गया है। ऊपरी भाग में उड़ती हुई मुद्रा में चार देव प्राकृतियों को भी दिखाया गया है। निचले भाग में आठ साध्वियों का मूर्तन किया गया है। मध्यकालीन कलाकृतियों में यह मूर्ति (चित्र ७९) निस्संदेह एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कृति है जिसमें जैन तथा ब्राह्मण धर्मों की पौराणिक धारणाओं के सफल समन्वय की अभिव्यक्ति की गयी है। लखनऊ के राज्य संग्रहालय में उत्तर प्रदेश के लगभग सभी भागों की मूर्तियों का प्रतिनिधि संग्रह विद्यमान है। उत्तर गुप्त-काल और पूर्व मध्यकाल की अनेक जैन प्रतिमाएँ इस संग्रहालय में सुरक्षित हैं किन्तु उनमें से कुछ ही महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती हैं । तीर्थंकरों की प्रतिमाओं में सुविधिनाथ की एक दुर्लभ प्रतिमा है जिसकी पहचान उसके पादपीठ पर अंकित मत्स्य-चिह्न से होती है। पदमा सन-मुद्रा में तीर्थंकर सुविधिनाथ अंकित हैं। उनके नीचे यक्ष तथा यक्षी की लघु प्रतिमाएँ हैं और पार्श्व में चमरधारी तथा शीर्ष पर तीन छत्रों के दोनों ओर विद्याधर युगल अवस्थित हैं। छत्रों के ऊपर स्थित नगाड़ा देवदुन्दुभि का प्रतिनिधित्व करता है। यह प्रतिमा (चित्र ८० क)श्रावस्ती से प्राप्त हई थी। 1 भट्टाचार्य (बी सी). जैन माइकॉनॉग्राफी. 1939. लाहौर. . 73 तथा चित्र 4. 156 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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