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अध्याय 14 ]
उत्तर भारत
नीलकंठ अथवा राजौरगढ़ (या गढ़), जो पार्श्वनाथ की विशाल प्रतिमा के आधार पर पारनगर भी कहलाता है, शूरसेन क्षेत्र के पश्चिम की ओर स्थित मत्स्यदेश का एक प्राचीन नगर है। यह नगर जैन तथा ब्राह्मण (मुख्यत: शैव) धर्मों के पूर्व-मध्यकाल तथा मध्यकाल की मूर्तियों तथा मंदिरों का सुप्रसिद्ध केन्द्र है। सावट नरेश के राज्यकाल ६२३ ई० के एक अभिलेख में राज्यपुर में शान्तिनाथमंदिर के निर्माण और उसमें मुख्य प्रतिमा की स्थापना का उल्लेख किया गया है । यह स्थान पार्श्वनाथ की विशाल (४.६५ मीटर ऊँची) प्रतिमा, जिसे स्थानीय लोग नौगजा कहते हैं, तथा तीन अन्य विशाल तीर्थंकर-प्रतिमाओं (चित्र ७६, ७७ क तथा ७७ ख) एवं हाल के अनुसंधान से प्राप्त लगभग दसवीं शताब्दी के जैन मंदिरों के अवशेषों के लिए सुप्रसिद्ध है।
वाराणसी में भी लगभग छठी और सातवीं शताब्दियों की उत्कृष्ट कोटि की प्रतिमाएँ प्राप्त हई हैं, जिनमें अजितनाथ की एक प्रतिमा भी सम्मिलित है जो अब लखनऊ के संग्रहालय में सुरक्षित है। लगभग नौवीं शताब्दी की एक भव्य सर्वतोभद्र प्रतिमा सरायाघाट, जिला एटा से प्राप्त हुई है, जिसमें चार तीर्थकर कायोत्सर्ग-मुद्रा में अंकित हैं। इस प्रतिमा से उत्तर गुप्त-काल में मध्यदेश में विकसित हई उत्तर गप्तकालीन कला की जीवंतता का प्रमाण मिलता है।
कृष्णदेव
मथुरा
अपनी मूर्ति-संपदा के लिए समृद्ध मथुरा के पुरातत्त्व संग्रहालय में अधिकांशतः मथुरा क्षेत्र अर्थात् जैन और ब्राह्मण धर्मानुयायियों के लिए पवित्र ब्रजभूमि में निर्मित प्रतिमाएं संगृहीत हैं।
के संग्रहालय में छठी से दसवीं शताब्दियों की तीर्थंकरों, शासन-देवियों तथा गौण देवताओं की महत्त्वपूर्ण जैन प्रतिमाएं संग्रहीत हैं। पद्मासन-मुद्रा में पार्श्वनाथ की शिल्पांकित प्रतिमा जिसे प्रतीहारकाल का कहा जा सकता है, कला के इतिहास की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण कृति है। ध्यानमग्न तीर्थंकर परंपरागत सिंहासन पर आधारित सर्प-कुण्डलियों पर विराजमान हैं। उनके ऊपर सात नागफणों की छत्रछाया है और अपने शीर्ष पर एक-एक नागफण धारण किये हुए उनके शासनदेवता धरणेन्द्र और पद्मावती विराजमान हैं। शीर्ष की ओर, परंपरागत कल्पना के अनुसार, मेघों का प्रतिनिधित्व करनेवाले उड़ते हुए विद्याधरों को दिखाया गया है। मुखाकृति यद्यपि खण्डित रूप में है, फिर भी उसे देखकर गुप्त-परंपरा का स्मरण हो पाता है। तीर्थंकर की एक दूसरी पद्मासनप्रतिमा, जिसमें अधिक विकसित कला के गुण पाये जाते हैं, किंचित् परवर्ती काल की प्रतीत होती
1 इण्डियन प्रायॉलॉजी-ए रिव्यू, 1961-62. 1962. नई दिल्ली. पृ85. 2 महावीर जैन विद्यालय गोल्डन जुबिली वॉल्यूम. खण्ड 1. 1968. बम्बई. पृ 143-55. चित्र 10-11. 3 वही, पृ 217 के सामने का चित्र 4.
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