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________________ वास्तु- स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई० [ भाग 4 उत्कीर्णं व्यालों से संपावित हैं जो प्रतिस्पर्धा की भावभंगिमावाले हाथियों के मस्तकों से सुशोभित और विभिन्न प्रकार की मोहक मुद्राओं में गंधर्वों और अप्सरानों की सजीव मूर्तियों द्वारा अलंकृत टोड़ों पर आधारित हैं । गूढ़ - मण्डप के सन्निकट त्रिक-मण्डप के प्राचीर स्तंभों पर नौवें और दसवें दिग्पाल ब्रह्मा तथा अनंत की मूर्तियाँ भी दिखाई पड़ती हैं । जंघा के स्थान पर, छज्जों पर ( चित्र ७१) राजसेनक, वेदिका, आसनपट्ट, कक्षासन गोटे लगाये गये हैं जो छोरों पर शिल्पांकनों तथा स्पंदनशील आकृतियों से अलंकृत हैं । दुर्दान्त व्यालों से अलंकृत झरोखे, मकर- तोरण की झालरों के नीचे, नृत्य तथा संगीत के नाटकीय शिल्पांकनों को आधार प्रदान करते हैं । जंघा के शीर्षभाग में सादी सुदृढ़ वरण्डिका के ऊपर की संपूर्ण निर्मिति एक आधुनिक रचना है । उत्तरी तथा दक्षिणी पावों में स्थित कुंभ - पुरुषों की ग्रोजस्वी मूर्तियों के अतिरिक्त त्रिक-मण्डप के राजसेनक पर विद्यादेवियों और गंधर्वों के शिल्पांकन हैं । त्रिक-मण्डप के सभी छह स्तंभ तथा चार प्राचीर-स्तंभ भव्य हैं और उनके ऊपरी भाग ललित रूप में उत्कीर्ण हैं । मुख-चतुष्की के सोपान के दोनों पार्श्वो पर विद्या-देवियों तथा यक्षों की आकृतियाँ बनी हुई हैं, जिनमें गोमुख तथा ब्रह्म यक्ष की प्रतिमाएँ सम्मिलित हैं । अंतस्थ भवन (चित्र ७२ ) की छत पर मनोरंजक और विविधतापूर्ण आकृतियों का चित्रण किया गया है । मुख चतुष्की पर मसूराकार क्षिप्त-वितान का निर्माण किया गया है, जो नाभिच्छंद शैली में है । इस शैली की निर्मितियाँ वर्मन के ब्राह्मणस्वामी मंदिर, अउवा के कामेश्वर मंदिर और ग्यारसपुर के मालादेवी मंदिर जैसे प्राचीन मंदिरों में देखी जा सकती हैं । त्रिक-मण्डप की केन्द्रीय छत समतल वितान के रूप में है जिसमें दण्ड - रास के उत्कीर्ण कला - पिण्डों से युक्त प्रभाग दर्शाये गये हैं । इनके चारों ओर संकेन्द्रित पंक्तियों में व्याल, नर्तक, नट तथा अलंकृत शिल्पांकन सुशोभित हैं । इसकी बायीं और दायीं ओर की पंक्तियों में नाभिच्छंद शैली में गजतालुनों के साथ क्षिप्त-वितानों की रचना की गयी है, तथापि अष्टकोणीय गूढ़ - मण्डप की छत भव्यतम है, जिसपर सभा मार्ग शैली में निर्मित विशाल क्षिप्त-वितान दर्शाया गया है। यह क्षिप्त-वितान पद्म केसर के रूप में परिणत होनेवाली, प्रभूत अलंकरणपूर्ण दस उत्कीर्ण संकेन्द्रित मुद्रिकाओं से युक्त है । इन मुद्रिकाओं में वामन प्राकृतियों की एक पंक्ति चित्रित की गयी है जिसमें से बाहर की ओर मनोमुग्धकारी अप्सराओं को धारण किये हुए आठ हाथी - टोड़े निकले हुए हैं । गूढ़ - मण्डप में पाँच शाखाओं के द्वारमार्ग का निर्माण किया गया है, जिसपर पत्र शाखा और रूप-शाखा उत्कीर्ण हैं और पार्श्वभाग व्यालों, अप्सराओं, पद्मपत्र - शाखा तथा रत्न - शाखा से अलंकृत किये गये हैं जिसके नीचे नागों की आकृतियाँ बनी हुई हैं। सरदल तथा रूप-शाखा की देवकुलिकाओं (प्रालों) में विद्यादेवियों अथवा यक्षियों की बीस श्राकृतियाँ उत्कीर्ण हैं, जिनमें से रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रशृंखला, वज्रांकुशा, पद्मावती तथा निर्वाणी अथवा महालक्ष्मी की प्राकृतियों की बायीं ओर Jain Education International 150 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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