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________________ अध्याय 14 ] उत्तर भारत तथा महालक्ष्मी, मानसी अच्छुप्ता, वैरोट्या, वज्राकुंशा तथा अंबिका की आकृतियों को दायीं ओर देखा जा सकता है। ध्यान - मुद्रा में पार्श्वनाथ की एक मूर्ति ललाट- बिम्ब के रूप में उत्कीर्ण की गयी है । द्वार के दोनों पार्श्वो पर एक-एक कलात्मक खत्तक की रचना की गयी है, नीचे कीचक और ऊपरी भाग में उद्गम उत्कीर्ण किये गये हैं । गर्भगृह का द्वार (चित्र ७३ ) गूढ़ - मण्डप के समान और अपने वाहनों पर आरूढ़ विद्यादेवियों और यक्षियों की आकृतियाँ रूप-स्तंभों पर उत्कीर्ण हैं । इन आकृतियों में से रोहिणी, निर्वाणी, वज्रांकुशा, चक्रेश्वरी, महामानसी, मानसी, वैरोट्या, प्रज्ञप्ति तथा महाज्वाला को पहचाना जा सकता है । ढाकी, जिन्होंने इस मंदिर का विस्तृत अध्ययन किया है। इसे वास्तुकला की मारु-गुर्जर शैली की मेदपाट (मेवाड़) शाखा का एक उत्कृष्ट उदाहरण मानते हैं और उन्होंने जगत के अंबिका मंदिर से शैलीगत समानताओं के आधार पर इसका निर्माणकाल मध्य दसवीं शताब्दी ठीक ही निर्धारित किया है । इस कालावधि का पुष्टीकरण इस स्थान पर पाये गये एक पादपीठ से होता है, जिस पर ९५४ ई० का एक लेख भी उत्कीर्ण है । किन्तु अब वह पादपीठ अप्राप्य है । ओसिया, प्रारंभिक मध्ययुगीन कला और स्थापत्य का एक सुप्रसिद्ध स्थान है, जहाँ आठवींनौवीं शताब्दियों के लगभग एक दर्जन मंदिर प्रारंभिक चरण की निर्मिति हैं । कोई आधा दर्जन मंदिर लगभग ग्यारहवीं शताब्दी की परवर्ती निर्माण प्रक्रिया के हैं । श्रोसिया के मंदिर मण्डप, यहाँ का मुख्य जैन मंदिर महावीर मंदिर ( चित्र ७४ ) है जो प्रारंभिक चरण की निर्मितियों में से एक है । एक शिलालेख के अनुसार इस मंदिर का निर्माण प्रतीहार वत्सराज के शासनकाल (आठवीं शताब्दी का अंतिम चतुर्थांश) में किया गया था। इस मंदिर का मुख उत्तर की ओर है । इसकी संपूर्ण निर्मिति में प्रदक्षिणापथ के साथ गर्भगृह, अंतराल, पार्श्व भित्तियों के साथ गूढ़त्रिक-मण्डप तथा सीढ़ियाँ चढ़कर पहुँच जाने योग्य मुख-चतुष्की सम्मिलित हैं । द्वार-मण्डप से कुछ दूरी पर एक तोरण है जिसका निर्माण, एक शिलालेख के अनुसार, १०१६ ई० में किया गया था । किन्तु इससे भी पूर्व ६५६ ई० में द्वार-मण्डप के सामने संकेन्द्रित वालाणक ( श्राच्छादित सोपानयुक्त प्रवेशद्वार) का निर्माण कराया गया था। गर्भगृह के दोनों ओर तथा पीछे की ओर एक प्राच्छादित वीथी निर्मित है | मुख मण्डप तथा तोरण के बीच के रिक्त स्थान के दोनों पावों में युगल देवकुलिकाएं बाद में निर्मित की गयी हैं । 1 महावीर जैन विद्यालय गोल्डन जुबिली वॉल्यूम खण्ड 1. 1968. बम्बई. पृ 328-32. Jain Education International 151 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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