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________________ वास्तु- स्मारक एवं मूर्तिकला 300 से 600 ई० [ भाग 3 इन मूर्तियों की शैलीगत विशेषताएँ उन शैलियों को प्रदर्शित करती हैं जो सारनाथ तथा देवगढ़ में साकार हुईं और जिन्होंने पूर्वी भारत में मूर्ति निर्माण - गतिविधि को प्रभावित किया । " राजगिर की जैन कला में कम से कम दो पृथक् शैलीगत वर्ग स्पष्ट पहचाने जा सकते हैं । पहले वर्ग का प्रतिनिधित्व वैभारगिरि के ध्वस्त मंदिर से प्राप्त नेमिनाथ की प्रतिमा और पूर्वी सोनभण्डार गुफा की छह अन्य तीर्थंकर - शिल्पाकृतियाँ करती हैं। इनमें दूसरे वर्ग की अपेक्षा अधिक लालित्य है। एवं शरीर रचना में अंगों का पारस्परिक संबंध अधिक अच्छी तरह दिखाया जा सका है। दूसरे वर्ग में तीन प्रतिमाएँ" प्राती हैं जो ध्वस्त मंदिर की उसी कोठरी में नेमिनाथ की प्रतिमा के साथ ही प्राप्त हुई थीं। इस वर्ग की प्रतिमानों की विशेषताएँ हैं-- अपेक्षाकृत सुगठित धड़, स्तंभ - जैसे पैर, और नाभि के नीचे सुस्पष्ट मांस-पिण्ड जिसके नीचे एक गहरी उत्कीर्ण रेखा है जो प्रकृति को स्पष्ट काटती है । यही बात गर्दन में भी देखने को मिलती है। दोनों ही वर्गों की तीर्थंकर - प्रतिमानों के हाथों का अंकन भी इस दृष्टि से प्रसंगत है कि सामने की भुजाएँ पार्श्व हाथों से जोड़ी गयी हैं । साथ ही, दोनों वर्गों में स्तंभ-जैसे पैर हैं तथा टाँगों के अंकन में शीघ्रता से काम लिया गया है । इस प्रकार ये प्रतिमाएँ एक नयी शैली की सूचना देती हैं जो उस समय अपना स्थान बनाती जा रही थी। मिश्रित अंकन के अतिरिक्त इन प्रतिमानों पर तीर्थंकरों के वे परिचय- चिह्न भी अंकित हैं जो प्रतिमा-विज्ञान में स्वीकार किये जा रहे थे तथा जिनसे विभिन्न तीर्थंकरों की पहचान करने में सहायता मिलती है । विचाराधीन अवधि की जो प्राचीनतम प्रतिमा अभी तक पूर्वी भारत से प्राप्त हुई है वह है राजगिर की वैभार पहाड़ी (चित्र ५३ ) के ध्वस्त मंदिर से प्राप्त बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ की प्रतिमा 14 काले पत्थर की इस प्रतिमा (७६४६८ से० मी० ) पर एक अस्पष्ट शिलालेख पाया गया है जिसमें ( महाराजाधिराज ) श्री चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) के नाम का उल्लेख है । इस तीर्थंकरप्रतिमा का शीर्ष बुरी तरह टूट-फूट गया है अन्यथा यह प्रतिमा गुप्त - कला का एक उत्कृष्ट नमूना है । तीर्थंकर - मूर्ति को सिंहासन पर ध्यान मुद्रा में अंकित किया गया है । सिंहासन के अंतिम सिरों पर उग्र सिंहों का अंकन किया गया है और एक अण्डाकार अरे युक्त चक्र की परिधि में एक राजपुरुष को खड़ा हुआ दिखाया गया है । उसके दोनों ओर दो केशहीन तीर्थंकर मूर्तियाँ ध्यान-मुद्रा में उत्कीर्ण हैं । 1 तुलनीय : वीनर ( शीला एल ). फॉम गुप्ता टु पाल स्कल्पचर. आटिबस एशियाई. 25; 1962; 167 तथा परवर्ती. 2 ब्रून (क्लॉस ). जिन इमेजेज ऑॉफ देवगढ़. 1969. लीडन. पृ 115-16, 222-24. चित्र 76. अपनी वर्गीकरण पद्धति में, ब्रून ने इन प्रतिमाओं में से एक को बेडौल वर्ग (कला-प्रतीक 1 ) के अंतर्गत रखा है और उसे प्रारंभिक मध्ययुग की बताया है. 3 इस विशेषता के कारण इन प्रतिमाओं की तुलना पाँचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की सारनाथ शैली की अन्य प्रतिमात्र से भलीभाँति की जा सकती है. तुलनीय वीनर, पूर्वोक्त, पृ 168. : चंदा, पूर्वोक्त, पृ 125-26. 4 Jain Education International 128 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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