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________________ अध्याय 11] पूर्व भारत हुई है ; एक पहाड़पुर के खण्डहरों से तथा दूसरी मैनामती से। ये दोनों ही स्थान अब बांग्लादेश में हैं। इनकी प्राप्ति से पूर्वी भारत में इसी अवधि के जैन कलावशेषों का एक संग्रह पूर्ण हो जाता है, इनके अतिरिक्त, राजगिर के मनियार मठ से भी कुछ नागी मूर्तियाँ मिलने की सूचना प्राप्त हुई है। यद्यपि जैन सृष्टिविद्या में नागों को व्यन्तर-लोक के किन्नरों की कोटि में रखा जाता है, परन्तु मनियार मठ से प्राप्त साक्ष्य से ऐसा प्रतीत होता है कि इन वस्तुओं का जैनों से संबंध नहीं है। इसके विपरीत यह संकेत मिलता है कि राजगह में एक प्रकार का सर्वदेव-मंदिर था, जिसमें ऐसे नाग देवता प्रतिष्ठित थे जिन्हें आसपास के क्षेत्रों के लोग पूजते थे।' लघु मण्मूर्तियों को छोड़कर जैन कला की अन्य कृतियाँ युग की सौंदर्य-चेतना का प्रतिनिधित्व करती हैं तथा सर्वत्र प्रचलित गुप्त-कला शैली का अंग हैं। यद्यपि उनका मूर्तन पारंपरिक पद्मासन या खड़गासन-मुद्रा में किया गया है, तदपि इस काल की तीर्थंकर-प्रतिमाएँ प्राचीन परंपरा से कहीं अधिक प्रगतिशील बन सकीं। उनमें अत्यधिक स्थूलता नहीं रह गयी थी, इसके विपरीत उनमें कलाकार का प्रयत्न परिलक्षित होता है कि मुद्रा की कठोरता को कोमल बनाने के लिए आकृति की स्थूलता को सरल वक्र और सतत सरल रेखन्युक्त सामंजस्य उत्पन्न करके दूर किया जाये । एक प्राणवान रूप प्रदान करने की भावना सभी प्रतिमाओं में दिखाई पड़ती है, यद्यपि इसमें सफलता की मात्रा भिन्न-भिन्न हो सकती है। सामान्यतः प्रस्तर-प्रतिमाएं कांस्य प्रतिमाओं से कला की दृष्टि से अधिक सुघड़ हैं, और जहाँ कहीं उनमें प्राचीनता रह गयी है वहाँ उसका कारण संभवतः यह रहा है कि कलाकार कुषाणकालीन मथुरा शैली के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सका। समग्र रूप से ये प्रतिमाएं उत्तर और मध्य भारत के अन्य क्षेत्रों की इसी प्रकार की कलाकृतियों के सदृश हैं। 1 एपिग्राफिया इण्डिका, पूर्वोक्त./ शाह, पूर्वोक्त, पृ 15. यह प्रतिमा कमल पर खड्गासनस्थातीर्थकर की है, जिसके दोनों ओर यक्ष ( ? श्रावक) की आकृति बनी हुई है । तुलनीय : अनेकांत; 1956, अगस्त ; 236. 2 रामचन्द्रन (टी एन). रीसेन्ट आयॉलॉजिकल डिस्कवरीज अलोंग द मैनामाटी एण्ड लालमाई रेंजेज, टिप्पेरा डिस्ट्रिक्ट, ईस्ट बंगाल. बी० सी० लॉ वॉल्यूम. संपा : डी आर भंडारकर इत्यादि. खण्ड 2. 1946. पूना. पृ 218-19. 3 ब्लाख, पूर्वोक्त, पृ 104. कनिंघम ने जब मनियार मठ में एक बेलनाकार रचना की खुदाई करवायी तो वहाँ से पार्श्वनाथ की एक कायोत्सर्ग प्रतिमा के प्राप्त होने की सूचना दी. (कुरैशी, पूर्वोक्त, 1931, पृ 132.) किन्तु ब्लाख को ऐसी और भी अनेकों मूर्तियां मिलीं और उनका ऊपर दिया गया निष्कर्ष युक्तिसंगत प्रतीत होता है। तथापि पदमावती की सबसे प्राचीन प्रतिमा राजगिर से प्राप्त होने की सूचना है. आर्व यालाजिकल सर्वे अॉफ इंण्डिया. एनुअल रिपोर्ट, 1930-34. खण्ड 2. 1936. दिल्ली. पृ 276, चित्र 68 ख./ मैती (पी के). हिस्टॉरिकल स्टडीज इन द कल्ट प्रॉफ गॉडेस मनमा. 1966. कलकत्ता. 4 लाख, पूर्वोक्त, पृ 104./आयॉलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, ईस्टर्न सकिल. एनुअल रिपोर्ट, 1905-6. 1907. कलकत्ता.पु 14-15. 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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