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________________ अध्याय 9] दक्षिण भारत सङ्गम साहित्य के नाम से ज्ञात तत्कालीन तमिल साहित्य जैनों और उनकी आचार-संहिता के लिए विख्यात है। जैनों की उत्तरोत्तर ज्ञानवृद्धि, उनके दर्शन और सिद्धांतों का परिचय हमें शिलप्पदिकारम् और मणिमेखलै नामक महाकाव्यों में ही देखने को मिलता है, जो लगभग पाँचवींछठी शती ई० के माने जा सकते हैं । यद्यपि, इन महाकाव्यों के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान् सङ्गम साहित्य मानकर इन महाकाव्यों को दूसरी शती ई० की रचनाएँ मानते हैं तो कुछ उन्हें पाठवीं शती ई० जैसे परवर्ती काल का बताते हैं। शिलप्पदिकारम् में स्पष्ट प्रमाण है, कि कावेरिप्पूम्पट्टिणम् जैसे महत्त्वपूर्ण नगरों और चेर देश (केरल) में जैन मंदिर विद्यमान थे। उपर्युक्त साक्ष्य के अनुसार ये निर्मित शैली के मंदिर थे और उनके निर्माण में ईंट, गारा और लकड़ी आदि सामग्री का उपयोग हुआ था जैसा कि सामान्यतः इस क्षेत्र में सातवीं शती के पूर्व तक होता रहा था । शिलप्पदिकारम् में एक ऐसी संस्था का उल्लेख है जिसका महत्त्व और प्राचीनता ध्यान देने योग्य है। इस संस्था को गुणवायिर्कोट्टम् (एक मंदिर विशेष ?) कहते थे और वह चेर देश में स्थित बतायी गयी है। इलङ्गी अडिगल जो इस महाकाव्य का लेखक था, एक चेर राजकुमार था जिसने चेर के राजसिंहासन पर से अपना उत्तराधिकार छोड़कर संन्यास ले लिया था। संभवतः जैन दीक्षा लेकर वह गणवायिर्कोद्रम् की सन्निधि में रहने लगा था। हाल ही में इस कोट्टम् की स्थिति चेर क्षेत्र में सिद्ध करने के प्रयत्न किये गये हैं और संयोगवश, इस महाकाव्य का रचनाकाल अब आठवीं शती बताया गया है ।। यद्यपि, यह तर्क प्रस्तुत किया जा सकता है कि इस महाकाव्य से व्यक्त होनेवाले जैन प्रभाव की प्रकृति और इसमें उल्लिखित जैन संस्थाओं के विशेष विवरणों से यह अत्यंत असंभव लगता है कि ऐसी कोई संस्था उस समय अस्तित्व में आयी हो जब सातवीं शती का धार्मिक संघर्ष समाप्त ही हुआ था । यह भी नहीं लगता कि वह सातवीं-आठवीं शताब्दियों में हुए ब्राह्मण-विद्रोह के घातक परिणामों से स्वयं को किसी असाधारण सीमा तक सुरक्षित रख सकी हो। दूसरी ओर, यह बहुत संभव है कि मूल रूप में यह मंदिर ईंट और गारे से बनाया गया हो और बाद में उसे पाषाण से पुनर्निर्मित कर दिया गया हो, जिसके खण्डहर मध्य केरल के कोडुंगल्लूर (केंगनोर) के समीप कुनवाय नामक स्थान पर स्थित माने जाते हैं। प्रांरभिक काल के मंदिरों या चैत्यवासों जैसे किन्हीं महत्त्वपूर्ण जैन स्मारकों के अभाव में, शय्याओं से युक्त और ब्राह्मी-अभिलेखांकित इन प्राकृतिक गुफाओं का महत्त्व इसलिए और भी बढ़ जाता है कि तमिलनाडु में इस काल के स्मारकों में केवल इन्हीं पर तिथि अंकित है। 1 नारायणन् (एम जी एस). न्यू लाइट ऑन कुणवायिरकोट्टम एण्ड द डेट ऑफ शिलप्पदिकारम. जर्नल अॉफ इण्डियन हिस्ट्री. 48; 1970; 691 तथा परवर्ती. 99 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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