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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 ई०पू० से 300 ई० [ भाग 2 इन गुफाओं के सामने स्तंभों पर आधारित खपरैल की छत के रूप में अतिरिक्त निर्माणकार्य भी किया गया था। स्तंभों को स्थिर करने के लिए उकेरे गये कोटर आज भी कुछ गफानों के सामने शिलाओं पर देखे जा सकते हैं। गुफाएँ प्रायः झरनों के समीप स्थित हैं; जल की सुविधापूर्वक प्राप्ति के लिए ही ऐसे स्थानों को चुना गया था। ___ इन स्थानों पर प्रायः सर्वत्र परवर्ती काल अर्थात् सातवीं-नौवीं शताब्दियों में मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गयीं जिनके साथ वटेजुत्तु लिपि में अभिलेख भी मिलते हैं, जिनमें प्रसिद्ध जैन आचार्यों और कभी-कभी दाताओं के नाम का उल्लेख भी किया गया है। ये शिल्पांकन प्रायः प्रक्षिप्त शिला अथवा गुफा के समीप किसी सुविधाजनक स्थान या शिला पर किये गये हैं। इससे विदित होता है कि आठवींनौवीं शताब्दियों तक ये क्षेत्र निरंतर जैनों के अधिकार में रहे। इन शताब्दियों में उन स्थानों की स्थिति में परिवर्तन हुए क्योंकि या तो उन्हें जैनों ने स्वयं भंग कर दिया या वे वलपूर्वक शैव या वैष्णव-केन्द्रों के रूप में परिवर्तित कर दिये गये। ये परिवर्तन, निस्संदेह, उस संघर्ष के परिणाम थे जो एक ओर बौद्धों और जैनों तथा दूसरी ओर इनके तथा ब्राह्मण मतों के बीच उठ खड़ा हुआ था और जिसमें भक्ति-पंथ के समर्थकों ने ब्राह्मण मतों को गहरा आघात पहुँचाया। यह उल्लेखनीय है कि इस समूचे संघर्ष में, जैनों की चर्चा इन (प्रायः आठ) पर्वत-श्रेणियों के आवास-कर्ताओं के रूप में मिलती है। इनमें से अधिकांश पहाड़ियाँ मदुरै के आसपास हैं। मदुरै के निकटवर्ती पहाड़ी क्षेत्र, कदाचित् तमिलनाडु, में जैनों के प्रमुख केन्द्र थे, क्योंकि ये वही क्षेत्र थे जहाँ अंततोगत्वा जैनों के कुछ सर्वाधिक प्रभावशाली चैत्यवास अस्तित्व में आये । साथ ही मदुरै ही में बज्रनन्दी ने लगभग ४७० ई० में जैनों के द्राविड़-संघ की स्थापना की थी। इस क्षेत्र में जैन ईसा-पूर्व दूसरी शती तक पहुंच चुके होंगे (मांगुलम् के प्राचीनतम ब्राह्मी अभिलेखों का यही समय माना गया है)। कर्नाटक से प्रारंभ होकर इस यात्रा का मार्ग कोंगुदेश (कोयंबत्तुर क्षेत्र) की पर्वत-श्रेणियों, तिरुच्चिरापल्लि के पश्चिमी क्षेत्र और वहाँ से पुदुक्कोट्ट के दक्षिण से होता हुआ मदुरै की पर्वत-श्रेणियों अर्थात् कर्नाटक की पहाड़ियों से मदुरै तक का विशाल क्षेत्र माना जा सकता है । तोण्डैमण्डलम् (चिगलपट, उत्तर अर्काट और दक्षिण अर्काट जिले) की पर्वत-श्रेणियों में अवस्थित प्रस्तर-शय्याओं से युक्त गुफाओं से प्रतीत होता है कि धीरे-धीरे कुछ जैन तमिलनाडु के उत्तरी अंचलों में भी पहुंचे थे। चोलदेश में तिरुच्चिरापल्लि और कावेरी के कछारों के पश्चिमी तटों को छोड़कर तोण्डैमण्डलम् के दक्षिण और पाण्ड्य राज्य के उत्तर में जैनों के प्रवेश के प्रमाण कम ही मिलते हैं। 1 वट्टेजुत्त एक प्रकार की शीघ्र लिखी जानेवाली लिपि है जो दक्षिणी क्षेत्र में ब्राह्मी से विकसित हुई. 2 द्रष्टव्य : परवर्ती पृ 101 पर मुत्तुप्पट्टि (समणरमलै) के अंतर्गत. 98 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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