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________________ ! प्राक्कथन रूप-रेखा को क्रियान्वित करने में सहायक होगा । ऐसे विद्वान् बहुत ही गिने-चुने हैं और वे सब अनेक प्रकार के दायित्वों से पूर्व - बद्ध हैं । अंत में हमारा सुखद निर्णय यह रहा कि हम कठिनाई के उत्ताप का समाधान श्री अमलानंद घोष जैसे वट वृक्ष की छाया में प्राप्त करें। श्री घोष, भारत सरकार के पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक के पद से सेवा निवृत्त हो चुके हैं। उन्होंने हमारे अनुरोध को माना और ग्रंथ के संपादन का दायित्व स्वीकार किया । ग्रंथ की योजना को भली-भाँति देख-समझ कर श्री घोष ने परामर्श दिया कि चूंकि यह ग्रंथ अपने ढंग का पहला प्रयास है और भगवान् महावीर के निर्वाण महोत्सव पर अवश्य प्रकाशित कर देना है, अतः योजना को प्रत्यधिक विस्तृत न बनाकर, इसे सारभूत और संक्षिप्त बनाना अधिक उचित और उपयोगी होगा । संक्षिप्त बनाते-बनाते भी यह रूप इतना बड़ा हो गया कि दो खण्डों की कल्पना करनी पड़ी और अब तो वह तीन खण्डों में क्रियान्वित हो रही है । योजना बना लेना एक बात थी, किन्तु उसे पूरा करने के दायित्व को सँभालना दूसरी बात है । ग्रंथ के लेखकों को योजना भेजी गयी और उन्हें अपनी ओर से पर्याप्त समय भी दिया गया, किन्तु समय की सीमा ने उनका साथ नहीं दिया । मात्र सोच लेने से कि लेख लिखना है, कलम नहीं चल पड़ती। इस पुस्तक के लेखक प्रायः सभी अपने-अपने दैनिक दायित्वों से बँधे हैं, उनके पास समय का अभाव है । विषय की जानकारी होते हुए भी, सामग्री को सुचिंतित ढंग से व्यवस्थित करना होता है, लिखते हुए अनेकानेक संदर्भ खोजने पड़ते हैं, और लेख के लिए उपयुक्त चित्रों को छाँटना - जुटाना तो कार्य को नितांत दुःसाध्य बना देता है । लेखकों की कठिनाई ने हमारी कठिनाइयों को कई गुना बढ़ा दिया । क्या पाठक कल्पना कर सकते हैं कि योजना को क्रियान्वित करने के लिए हमें लेखकों को, संग्रहालयों को, फोटोग्राफरों और कलाकारों को देश-विदेश में बार-बार कितने पत्र, स्मरण-पत्र और तार आदि देने पड़े ? यह संख्या है ४८६१ ! स्मरण- पत्र पानेवालों की झुंझलाहट का अनुमान लगाया जा सकता है। भेजनेवालों का तो, खैर, कर्त्तव्य ही है, वह । यदि ये पत्र कहीं दुर्विनीत लगे हों, तो हम क्षमाप्रार्थी हैं । यह सब लिखने का उद्देश्य केवल इतना है कि विद्वान् पाठकों को यदि इस ग्रंथ में कहीं कोई त्रुटि या अधूरापन दिखे तो, हमारी अशक्यता समझें और हमें संशोधन संबंधी सुझाव दें ताकि अगला संस्करण अधिक समुचित बनाया जा सके । दूसरा उद्देश्य यह है कि कला - ग्रंथों की योजना बनानेवाले धीरज से काम लें। यह ग्रंथ तो एक मार्ग दर्शक है । भविष्य में इस प्रकार के अनेक ग्रंथ प्रकाशित होंगे तब जैन कला का पूरा स्वरूप प्रत्यक्ष हो पायेगा । भगवान् महावीर की पुण्य निर्वाण शती के अवसर पर यह ग्रंथ प्रकाशित हो सका, यह भारतीय ज्ञानपीठ के लिए सौभाग्य की बात है । भारतीय ज्ञानपीठ श्री अमलानंद घोष के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करती है कि उन्होंने इस ग्रंथ के संपादन का दायित्व लिया; और इसी अवधि में एक वर्ष के इण्डोनेशिया के प्रवास से लौटने के उपरांत इस दायित्व का पुनर्ग्रहण किया । वह जब प्रवास पर गये तो स्पष्ट कह गये थे कि हम अन्य प्रबंध कर लें। हमने अपना काम जारी रखा, और उनके लौटने की प्रतीक्षा करते रहे । यह बहुत ठीक हुआ, कि सारे सूत्र ज्यों-के-त्यों जुड़ गये । श्री घोष के - ( 2 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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