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________________ प्राक्कथन साथ काम करने का मेरा अनुभव बहुत सुखद रहा है। इस दायित्व को उन्होंने जिस अध्यवसाय और निष्ठा से निभाया है, वह प्रेरणाप्रद है। कला और स्थापत्य के क्षेत्र में श्री घोष एक आदर्श संपादक माने जाते हैं। उनकी सहयोगी तत्परता के कारण इस ग्रंथ का मूल अंग्रेजी का प्रथम खण्ड निर्वाणमहोत्सव वर्ष के शुभारंभ के अवसर पर प्रकाशित हो सका, जिसका विधिवत् विमोचन १७ नवम्बर, १६७४ की विशाल जनसभा में प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के हाथों हुआ। श्री घोष की विद्वत्ता, संस्कृत भाषा और साहित्य की व्यंजनाओं की उनकी सूक्ष्मदृष्टि और, सर्वोपरि, कला-प्रकाशनों के विस्तृत तकनीकी अनुभव ने इस प्रकाशन को सुंदर और निर्दोष बनाने की दिशा में योगदान दिया है, यद्यपि श्री घोष स्वयं भी जानते हैं कि इस संबंध में समय रहते और भी क्या-कुछ हो सकता था । भारतीय ज्ञानपीठ की अध्यक्षा श्रीमती रमा जैन से इस योजना के क्रियान्वयन में हमें सहज सहायता और मार्ग-दर्शन प्राप्त हुआ है। प्रत्येक कठिनाई के निराकरण की उनकी तत्परता और मानदण्डों की रक्षा का उनका आग्रह हमारी पूंजी है। मूर्तिदेवी ग्रंथमाला की स्थापना के समय से ही इसके संपादक और अब ज्ञानपीठ के ट्रस्टी भी, डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये ने मूलपाठों के स्पष्टीकरण आदि में जो सहायता दी है, उसके लिए हम उनके आभारी हैं। जैन इतिहास, कला और साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ, ने प्रारंभ के अनेक अध्यायों का अध्ययन करके अपनी टिप्पणियाँ दीं, जिनका यथासंभव उपयोग हमने किया है। वे धन्यवाद के अधिकारी हैं। मुल अंग्रेजी ग्रंथ के लिए जिन विद्वानों ने लेख भेजे, उनके प्रति हमारा प्राभार ! पुरातत्त्वसर्वेक्षण-विभाग के मित्रों ने अपने सहयोग द्वारा हमें उपकृत किया है। यह ग्रंथ जो आपके हाथ में है, वास्तव में मूल अंग्रेजी ग्रंथ का अनुवाद है । अनुवाद सदा ही कठिन होता है, विशेषकर कला-विषयक ग्रंथ का जिसमें वाक्यों की गठन को सुलझाना, तक शब्दों के हिन्दी पर्यायों को खोजना, उनके अर्थ के प्रति आश्वस्त होना, भाषा को बोधगम्य बनाते हुए भी मूल के वाक्य-विन्यास और ध्वनि की सूक्ष्मता को सुरक्षित रखना आदि दुष्कर तत्त्वों को ध्यान में रखना पड़ता है। इस ग्रंथ के अनुवाद की दिशा में कितने व्यक्तियों के साथ सम्पर्क किया गया, कितने प्रयोग किये गये और अंततोगत्वा किस प्रकार संशोधन की प्रक्रिया में प्रायः पूरे-पूरे अनुवाद के रूप को बदल देना पड़ा है, इसका अनुमान भुक्त-भोगी ही लगा सकते हैं। फिर भी संतोष कहाँ होता है ? कला जैसा गढ़ विषय और कलाकार द्वारा निरूपित कलाकृति की सूक्ष्म विशेषताओं को वाणी देनेवाली अंग्रेजी शब्दावली ने अनुवाद की प्रक्रिया को समय की सीमा की दृष्टि से और भी दुःसाध्य बना दिया । रातदिन के श्रम, यत्किचित् ज्ञान और संस्कार के अवदान के कारण ही यह (१०) Jain Education International For Private &Personal use only . www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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