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प्राक्कथन
भाषाओं के अनेक रूप-माध्यमों में रचा गया । कन्नड़ और तमिल-जैसी भाषाओं के आधुनिक रूपविकास में इन भाषाओं के प्राचीन जैन प्राचार्यों के कृतित्व का योगदान है, यह बात सभी भाषाविद् स्वीकार करते हैं । साहित्यिक विधाओं का कोई रूप - काव्य, नाटक, कथा तथा टीका-व्याख्या - ऐसा नहीं जिसे जैन ग्रंथकारों ने अपनी प्रतिभा से अलंकृत न किया हो, वे चाहे जिस भी धर्म के उपासकों के परिवार में जनमे हों।
अध्येताओं, इतिहासज्ञों और पुरातत्त्ववेत्ताओं ने इस युग में जैनविद्या के एक अत्यंत परिपूर्ण आयाम का उद्घाटन किया है। वे यह देखकर चकित हैं कि जैन-कला का एक क्रमबद्ध इतिहास है; इसे छुट-पुट रूप में देखना अपनी दृष्टि को सीमित कर लेना है। जैन कला भारतीय कला-इतिहास का अभिन्न अंग है, और इस कला ने प्रत्येक युग की कला को प्रभावित किया है तथा स्वयं भी उसके प्रभाव को ग्रहण किया है। इस जैन कला का मूर्तरूप क्या है इसे प्रत्यक्ष देखने के लिए सारे देश के विभिन्न अंचलों की श्रमसाध्य यात्रा करनी पड़ती है। इसका रूप क्या है, इसे समझने और इसका विधिवत् अध्ययन करने की इच्छा रखनेवाले विद्वानों की और इस विषय में रुचि रखनेवाले सामान्य पाठक की भी पहली आवश्यकता यह है कि उसे सार रूप में इस सब कला-निधि का परिचय पढ़ने को मिल जाये । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही 'जैन कला और स्थापत्य' शीर्षक इस ग्रंथ की रचना तीन खण्डों में की गयी है (आशा के अनुरूप यह 'अद्भुत' प्रमाणित हो ! ) । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जैन कला और स्थापत्य के विधिवत अध्ययन में सहायक होने के उद्देश्य से भारतीय ज्ञान ने इस प्रकार की कलाकृतियों के लगभग दस हजार से अधिक छायांकन (फोटो) देश-विदेश के अनेक स्रोतों से संगृहीत कर लिये हैं और यह संग्रह दिन-पर-दिन बढ़ता चला जा रहा है। हम श्री मधुसूदन नरहर देशपाण्डे, भारतीय पुरातत्त्व-सर्वेक्षण-विभाग के महानिदेशक, के आभारी हैं कि उन्होंने हमें इस कार्य में तथा हमारी अन्य गतिविधियों में सहायता दी, हमारा मार्ग-दर्शन किया।
इस ग्रंथ के मूल प्रेरणा-स्रोत भारत के औद्योगिक विकास के नेता और भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक, श्री साहू शांतिप्रसाद जैन हैं। श्री साहूजी की बलवती इच्छा थी कि भगवान् महावीर की पच्चीसवीं शती के पुण्य अवसर पर भारतीय ज्ञानपीठ अपनी प्रकाशन-योजनाओं में इस ग्रंथ को प्राथमिकता दे । भारतीय ज्ञानपीठ का नाम देश-विदेश के विद्वानों में एक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थान के रूप में सुपरिचित है। भारतीय विद्या के विद्वान् ज्ञानपीठ के शोध-प्रकाशनों से प्रभावित हैं। भारतीय समसामायिक साहित्य की प्रगति के लिए भारतीय ज्ञानपीठ ने नयी पीढ़ी के प्रतिभासंपन्न लेखकों की कृतियों का प्रकाशन किया है तथा यह संस्था प्रतिवर्ष भारतीय साहित्य की सर्जनात्मक कृतियों में से सर्वश्रेष्ठ का वरण कर उसे पुरस्कृत करती है। ज्ञानपीठ-पुरस्कार भारत का सर्वोच्च साहित्य-पुरस्कार माना जाता है।
इस ग्रंथ की रूप-रेखा के निर्धारण में प्रारंभ में कुछ कठिनाई रही। पहले इसका एक विस्तृत रूप सोचा गया और अपेक्षा की गयी कि जैन पुरातत्त्व के जानकार विद्वानों का संपादक-मंडल उस
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