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प्राक्कथन
जैन-विद्या को अब भारतीय-विद्या का एक महत्त्वपूर्ण और संग्रथित-अंग माना जाने लगा है। यह उचित ही है, क्योंकि 'जैन-विद्या' कहने पर हमारे मन में एक ऐसी विशिष्ट सांस्कृतिक धारा का चित्र सजीव हो जाता है जिसने भारतीय दर्शन, साहित्य और कला के साथ-साथ एक ऐसी जीवन-पद्धति को अत्यंत समृद्ध बनाया है जिसमें श्रावकों और साधुओं के लिए सामाजिक दायित्वों के निर्वाह और आध्यात्मिक उन्नति के हेतु सुचिंतित ढंग से प्रगति के सोपानों की रचना की गयी है और जिसके पीछे एक सुदृढ़ परंपरा का निर्माण हुआ है। भारतीय विद्याओं में रुचि रखनेवाले विद्वानों ने अब उन भ्रांत धारणाओं का परित्याग कर दिया है जिनके अंतर्गत यह माना जाता था कि जैन धर्म बौद्ध धर्म की एक शाखा है, या तीर्थकर महावीर जैन धर्म के आदि संस्थापक हैं।
इतिहास के अध्ययन के आधार पर अब तो विद्वान् निश्चित रूप से यह मानने लगे हैं कि जैन धर्म के तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ, अंतिम चौबीसवें तीर्थंकर महावीर से ढाई सौ वर्ष पूर्व हुए थे, और बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के इतिहास का काल महाभारत और गीता के उन विख्यात कृष्ण के साथ जुड़ा हुआ है जो परस्पर चचेरे भाई थे। प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ या वृषभ थे जिनका उल्लेख ऋग्वेद में अनेक बार आया है और प्रस्तुत कला-ग्रंथ के अनेक लेखों में विद्वानों ने जिनका संदर्भ दिया है।
यही स्थिति भारतीय दर्शन के क्षेत्र में है। जैन धर्म को 'नास्तिक' धर्म की संज्ञा अब कोई इस आधार पर नहीं देता कि यह धर्म इस सृष्टि को किसी ईश्वर द्वारा रची गयी नहीं मानता। जैन धर्म आत्मा की अनादि सत्ता में विश्वास करता है और साथ ही पाँच अन्य द्रव्यों की सत्ता में । वे अन्य पाँच द्रव्य हैं - पुद्गल (जड़ तत्त्व जिसमें ऊर्जा भी सम्मिलित है), धर्म (गति का माध्यम), अधर्म (स्थिति का माध्यम), आकाश (जो सारे विश्व को अवगाह देता है) और काल (समय)। यह धर्म मानता है कि प्रत्येक आत्मा में क्षमता है कि वह निर्वाण प्राप्त करे, अर्थात् परमात्म-पद पाये। भारतीय दर्शन को इस धर्म ने अनेकांत के महान सिद्धांत का अवदान दिया जिस सिद्धांत में दार्शनिक वाद-विवादों के समाधान की क्षमता है और जो जैन धर्म के एक अन्य आधारभूत सिद्धांत 'अहिंसा' (मन-वचन-काय से किसी भी प्राणी को दुःख न पहुंचाना) से संबद्ध किये जाने पर सामाजिक विषमताओं का निराकरण करता है।
जैन धर्म की अमूल्य प्रेरणा के फलस्वरूप भारतीय साहित्य की अभिवृद्धि हुई - धार्मिक साहित्य के क्षेत्र में, और धर्मनिरपेक्ष साहित्य के क्षेत्र में भी। यह साहित्य संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश
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