SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय 7 पूर्व भारत बिहार भारत के समस्त प्रदेशों में बिहार जैन धर्म का प्राचीनतम गढ़ रहा है। इसके अनेक ग्राम और नगर भगवान् महावीर की चरण-रज से गौरवान्वित हुए थे। भारत के महाजनपदों में से तीनवृजि, मगध और अंग-की राजधानियाँ तथा प्रमुख नगर उनसे विशेष रूप से संबंधित रहे हैं। वजि राज्य-मण्डल में लिच्छवियों और विदेहों सहित आठ या नौ राजकुल सम्मिलित थे । लिच्छवियों की राजधानी वैशाली महावीर का जन्मस्थान थी। वे उसके उपनगर कुण्डग्राम में जनमे थे। उनकी माता लिच्छवि-प्रधान चेटक की बहन (एक अन्य परंपरा के अनुसार पुत्री) थीं। अपने भ्रमण के समय महावीर ने अनेक चातुर्मास वैशाली और उसके उपनगर वाणिज्य-ग्राम में बिताये थे। छह चातुर्मास उन्होंने विदेह की राजधानी मिथिला में भी व्यतीत किये थे। मगध की राजधानी राजगृह भी चातुर्मास के लिए महावीर का प्रिय स्थान थी। यहाँ और इसके समीपवर्ती नालंदा ग्राम में उन्होंने चौदह चातुर्मास व्यतीत किये। जैन परंपरा के अनुसार, श्रेणिक बिम्बसार, जिसका विवाह वैशाली के चेटक की कन्या चेलना से हुआ था, और उसका पुत्र कुणिक-अजातशत्रु महावीर के भक्त थे। अंग देश की राजधानी चम्पा भी, जिसे बिम्बसार ने मगध साम्राज्य में मिला लिया था, महावीर का प्रिय वासस्थान थी। महावीर के निर्वार्णोपरांत भी पूर्वी भारत में जैन धर्म को राज्याश्रय प्राप्त होता रहा। अजातशत्रु के उत्तराधिकारी और धर्मपरायण जैन मतावलम्बी उदयभद्र ने मगध (जिसमें लिच्छिवि सामंत प्रदेश को इस समय तक सम्मिलित कर लिया गया था) के सिंहासन पर आसीन होते ही नवनिर्मित राजधानी पाटलिपुत्र में एक जिनालय का निर्माण कराया। नन्द नरेशों की भी जैन धर्म की ओर अनुकूल प्रवृत्ति थी और उनके मंत्री जैन मतावलम्बी थे। जैन परंपराओं के अनुसार नन्द शासन का अंत करनेवाला चन्द्रगुप्त मौर्य भी अपने जीवन के अंतिम दिनों में जैन धर्म के प्रभाव में आ गया था और जब मगध में एक भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा तब उसने मुनि भद्रबाहु और बहुत-से 1 मजुमदार (आर सी) तथा पुसालकर (ए डी), संपा. एज प्रॉफ इम्पीरियल यूनिटी. 1960. बम्बई. पृ 29. 72 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy