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अध्याय 7 ]
पूर्व भारत
अनुयायियों के साथ अपनी राजधानी पाटलिपुत्र को त्यागकर दक्षिण की ओर प्रस्थान किया था । कहा जाता है कि यह दुर्भिक्ष बारह वर्षों तक रहा और इसकी समाप्ति के उपरांत पाटलिपुत्र में आगम के संकलन हेतु पहली जैन परिषद आयोजित की गयी।
यद्यपि चन्द्रगुप्त के पौत्र अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार बड़े उत्साह के साथ किया, तो भी, उसने निग्रन्थों (जैनों) की अवहेलना नहीं की जैसा कि उसके सप्तम स्तंभ-लेख से विदित होता है। इसमें उसने कहा है कि उसके धर्ममहामात्र बिना किसी भेदभाव के बौद्ध संघों, ब्राह्मणों, आजीविकों और निर्ग्रन्थों का कार्य समान भाव से करते थे। उसके उत्तराधिकारियों में सम्प्रति धर्मपरायण जैन शासक था। धर्म प्रचार के लिए उसने पर्याप्त प्रयत्न किये और जैन भवनों का निर्माण कराया ।।
यद्यपि यह निश्चित है कि इस युग में जैन धर्म उत्कर्षशील था, तथापि यह एक समस्यामूलक बात ही है कि बिहार में केवल इस अवधि के ही नहीं अपितु इससे पूर्व की अवधि के भी जैन स्मारकों और पुरावशेषों का नितांत अभाव-सा है। यहाँ तक कि वैशाली (आधुनिक बसाढ़, जिला वैशाली) में भी, जो महावीर से इतनी अधिक संबद्ध रही है और जहाँ मुनिसुव्रतनाथ का एक स्तूप होने की सूचना मिलती है, प्रारंभिक काल का एक भी जैन स्मारक अबतक नहीं मिल सका है।2
राजगृह (आधुनिक राजगिर, जिला नालंदा) में जिस प्राचीनतम जैन स्मारक की पहचान की जा सकी है, वह है दो शैलोत्कीर्ण गुफाओं का एक समूह जिसमें से पश्चिमी गुफा को सोनभण्डार कहा जाता है । इस गुफा के अग्रभाग के शिलालेख (जिसमें अर्हतों की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित किये जाने का उल्लेख है) की पुरालिपि के आधार पर ये गुफाएँ सामान्यतः ईसा की तीसरी या चौथी शती की बतायी गयी हैं। तथापि जैसा कि श्री सरस्वती' का भी मत है, ये गुफाएँ इस अवधि से भी पहले की
1 मजूमदार तथा पुसालकर, पूर्वोक्त, पृ 89./ शाह ( यु पी ). स्टडीज इन जैन पार्ट. 1955. बनारस. 6. 2 शाह, पूर्वोक्त, पृ 9 और 62. 3 कुरैशी ( एम एच ) तथा घोष (ए). राजगिर. 1958. नई दिल्ली. पृ 25.
मजूमदार और पुसालकर, पूर्वोक्त, पृ 503 पर सरस्वती के विचार. [द्रष्टव्य : अध्याय 11 और चित्र 51 क. पूर्वी गुफा के आद्य गुप्तकालीन शिल्पांकनों और पश्चिमी गुफा की बाह्य भित्ति पर उसी अवधि के इस आशय के शिलालेख की -- कि आचार्यरत्न मुनि वैरदेव ने निर्वाण प्राप्ति के लिए इन दोनों गुफाओं का निर्माण कराया था और उनमें अर्हतों की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करायी थीं -- कालक्रम की दृष्टि से पृथक् कर पाना कठिन है। यह बात समझ में आती है कि इस प्रदेश में जहाँ शैलोत्कीर्ण वास्तु-स्मारकों का लगभग अभाव है, शैल-स्थापत्य कला का विकास यदि नितांत अविद्यमान न भी रहा हो तो वह धीमा अवश्य रहा होगा। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि एक ओर सोनभण्डार गुफाओं में और दूसरी ओर बराबर और नागार्जुनी की मौर्य गुफाओं में क्यों समानता है । जिसके आधार पर सरस्वती ने सोनभण्डार गुफा को प्राचीनतर बताया है। इन गुफाओं की प्राचीनता को सिद्ध करने के प्रमाणस्वरूप यह भी बताया गया है कि उक्त शिलालेख ईसा की पहली-दूसरी शताब्दी का है: जैन (हीरालाल). भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान. 1962. भोपाल. पृ 308-309. किन्तु पुरालिपिशास्त्र की दृष्टि से यह मानना संभव नहीं है -- संपादक]
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