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अध्याय 6 ]
मथुरा
कंकाली-टीले में वेदिकाओं की दो भिन्न आकारों की बहुत-सी मसूराकार सूचियाँ (चित्र ६ ) भी प्राप्त हुई हैं । इन सूचियों पर कला - पिण्डों का विविध कला-प्रतीकों सहित अंकन है, जिनमें कमल-प्रतीक का प्रयोग सर्वाधिक है । कला -पिण्डों पर अन्य प्रतीक भी हैं; यथा, वृक्ष- चैत्य ( रा० सं० ल०, जे-४२२; चित्र ६ ख ), एक पादपीठ पर कटोरा ( ? ) 1, पंखधारी शंख जिसके मुख से मुद्राएँ निस्पंदित हो रही हैं, लता-पल्लव, मधुमालती लता श्रीवत्स, हंस तथा पशु ( रा० सं० ल०, जे४०३; चित्र ६ ग ) । इनमें से बहुत 'से पशु वस्तुतः काल्पनिक जन्तु हैं ( रा० सं० ल०, जे ३६५ ; चित्र ६ घ ), यथा, मनुष्य के सिरवाला सिंह, मत्स्य पुच्छवाला पंखधारी सिंह, मत्स्य- पुच्छवाला हाथी (रा० सं० ल०, जे ४२७; चित्र ६ क ), मत्स्य - पुच्छवाला मकर, मत्स्य पुच्छवाला भेड़िया, मत्स्य-पुच्छ तथा गृद्ध के सिर और पंखवाला सिंह, पंखधारी बकरी और हिरन ।
अनेक भारी-भारी उष्णीष-प्रस्तर प्राप्त हुए थे जिनमें से कुछ ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के माने जा सकते हैं । इनके ऊपर के कोने गोल किये हुए हैं और इनके दो प्रभाग हैं। ऊपरी प्रभाग पर, जो अपेक्षाकृत मोटा है और निचले के ऊपर प्रक्षिप्त है, सामान्यतः एक रज्जु उत्कीर्ण है जिसमें क्रमशः लटकती हुई घण्टियों और कली रूपी झुमकों का अंकन है। निचले प्रभाग पर सामान्यतः अंकित कलाप्रतीक एक रूढ़िगत शैली की लहरदार पट्टी या पुष्पयुक्त विसर्पी लता है (चित्र ७ क और ख ) । अन्य कला-प्रतीकों में अलंकृत मधुमालती लता तथा पशुओं के अंकन सम्मिलित हैं ( चित्र ७ ग) । अनेक स्थानों पर पशुओं का शिल्पांकन अत्यन्त प्रवीणतापूर्वक किया गया है ।
कंकाली - टीले से कुषाणयुग की किसी वेदिका के कुछ महत्त्वपूर्ण स्तंभ प्राप्त हुए हैं । यद्यपि ये स्तंभ पूर्वोक्त स्तंभों से अपेक्षाकृत लघु ग्राकार के हैं, किन्तु विषय-वस्तु की उत्तमता तथा मूर्तिकला संबंधी गुणों की कलात्मक उत्कृष्टता के कारण अधिक चित्ताकर्षक हैं । इनके दो और तीन मसूराकार कोटर (अधिकतर सिरों पर मुड़े हुए) तथा ऊपरी भाग पर एक चूल निर्मित है । पृष्ठभाग में दो पूर्ण तथा दो प्रर्धकमलयुक्त कला-पिण्ड हैं, प्रत्येक अधोभाग तथा शीर्षभाग में (चित्र ८) । कला - पिण्डों के किनारों पर नीलकमल अंकित हैं । कला - पिण्डों के मध्यवर्ती रिक्त स्थान तीन चरणों में हैं । तथापि, इन स्तंभों को विशिष्टता प्रदान करनेवाली बात यह है कि इनके पुरोभाग के सुस्पष्ट शिल्पांकनों में जीवंत मानव मूर्तियाँ अंकित हैं । इन सुगठित मूर्तियों का प्रतिरूपण पर्याप्त परिपक्व है और उससे विभिन्न मुद्राओं में मानव-मूर्तियों के शिल्पांकन में शिल्पकार की दक्षता परिलक्षित होती है । सुस्मित कपोलोंवाली ये नारियाँ स्वच्छंद और उल्लसित मुद्रा में दर्शायी गयी हैं । तथा अपने प्रिय ग्रामोद-प्रमोद तथा क्रीड़ा में रत हैं । यह कुछ विलक्षण-सी बात है कि अपनी कठोर आचार-संहिता के होते हुए भी जैन समुदाय ने कलाकार को मुक्त वातावरण में उसके उत्साह और विनोदी अभिरुचि की अभिव्यक्ति के लिए आसक्ति एवं आवेश से युक्त सुंदर, और यहाँ तक कि
1 डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन के मतानुसार (व्यक्तिगत पत्र व्यवहार), यह या तो एक शराव संपुट या प्रतिष्ठान (ठौन ) है, जो जैन मांगलिक प्रतीकों में से एक है.
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