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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 ई० पू० से 300 ई० [ भाग 2 एक तलवेदीयूक्त ढोलाकार शिखरवाले स्तूप की कम से कम दो और लघु अनुकृतियाँ हैं। एक तो एक आयाग-पट पर है (रा०सं०ल०, जे-२५०; चित्र-१४), और दूसरी एक वेदिका-स्तंभ के मध्यभाग में कमलवृत्त के भीतर है (रा० सं० ल०, जे-२८३; चित्र ४ क)। उपलब्ध साक्ष्यों से यह प्रतीत होता है कि मथुरा के जैन स्तूपों के ढोलाकार शिखरों का, सांची के स्तूप १, २ और ३ की भाँति अंलकरण नहीं किया गया, क्योंकि जैन संप्रदाय के लोग इसे पवित्रता का प्रतीक बनाये रखने के लिए, प्रत्यक्षतः आडंबरहीन तथा सादा स्तूप को पसंद करते रहे। इसके अतिरिक्त सांची के स्तूपों के सदृश, अलंकरण की लालसा की अभिव्यक्ति यहाँ वेदिकाओं और तोरणों पर हुई जो स्तूप के अंग तो हैं, किन्तु उसके अनिवार्य तत्त्व नहीं। कंकाली-टीले से प्राप्त वेदिकाओं और तोरणों के खण्डित भागों में से अनेक कुषाण-पूर्व एवं कुषाणयुग के कलाकारों की प्रशंसनीय उपलब्धि का सार्थक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। सब से प्राचीन वेदिका ईसा-पूर्व द्वितीय या प्रथम शताब्दी की हो सकती है। उसके खण्डित भागों को देखने से पता चलता है कि वेदिका में स्तंभों की एक शृंखला होती थी। सभी स्तंभ तीन सूचियों से परस्पर जुड़े होते थे और उनके ऊपर एक दूसरे छोर तक एक लम्बायमान उष्णीष बना होता था। उष्णीष को बिठाने के लिए स्तंभों के दोनों ओर मसूराकार कोटरों और शीर्ष पर चूल की व्यवस्था स्पष्टतः पुरातन काष्ठकला-शैली द्वारा प्रेरित है, जो तोरणों के अवशेषों में देखी जा सकती है। स्तंभ (रा० सं० ल०, जे-२८३, जे-२८८ और जे-२८२; चित्र ४) अंशत: वर्गाकार और अंशतः अष्टभुजाकार हैं । अष्टभुजाकार स्तंभ आच्छादित नहीं है । उनके दो ओर तो सूचियों की मसूराकार चलों को बिठाने के लिए तीन-तीन छिद्र बने हुए हैं, जब कि सामने तथा पीछे की ओर सामान्यतः तीन-तीन कला-पिण्ड और दो-दो अर्धवृत्ताकार कला-पिण्ड (एक अधोभाग में और दूसरा शीर्ष पर ) उत्कीर्ण किये गये हैं। पूर्ण और अर्धवृत्ताकार कला-पिण्डों में कम उभारवाले शिल्पांकित कला-प्रतीकों का भण्डार वस्तुतः सीमित है। विभिन्न रूपों में सर्वाधिक प्रचलित कला-प्रतीक कमल का है। अन्य कला-प्रतीकों में, जिनमें पुष्प-गुच्छ, मधुमालती लता, स्तूप (चित्र ४ क), मकर तथा पशुओं के चित्रण (चित्र ४ ग) सम्मिलित हैं, मिश्रित तथा काल्पनिक पशुओं के प्रतीक विशेष रूप से रोचक हैं (चित्र ४ ख) । प्रवेशद्वार पर स्तंभों की रचना कुछ भिन्न प्रकार की है। ये विशिष्ट अायताकार तथा पूर्णरूपेण शिल्पांकित हैं । स्तंभ क्रमांक रा० सं० ल०, जे-३५६ एक ऐसा ही स्तंभ है जो कंकाली - टीले में पाया गया है। इसके तीन ओर लता-गुल्मों के अत्यन्त कलात्मक अंकन हैं (चित्र ५) तथा चौथे अनुत्कीर्ण भाग में सूचियों के लिए तीन मसूराकार कोटर बने हुए हैं। इस स्तंभ विशेष के एक अोर (चित्र ५ ग) दो मसूराकार कोटर हैं, जो स्पष्टतः परवर्ती निर्मिति हैं और जिनके कारण मूल शिल्पांकनों को क्षति पहुंची है। यह भी संभव है कि तोरण की रचना के समय ही ये कोटर भी वेदिका के परवर्ती विस्तार के लिए बना दिये गये हों जैसा कि सांची 60 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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