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________________ वास्तु- स्मारक एवं मूर्तिकला 300 ई० पू० से 300 ई० [ भाग 2 ८ विलासप्रिय तथा कामोत्तेजक नारी आकृतियों का शिल्पांकन करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान कर दी। इस प्रकार अंकित है एक स्तंभ पर ( रा० सं० ल०, जे २७७) एक नारी मूर्ति जो अशोक वृक्ष के नीचे दीन मुद्रा में झुके हुए एक बौने पुरुष की पीठ पर अपनी देह में आकर्षक आकुंचन दिये हुए खड़ी हुई है और एक पुष्पमाल से अपना केशविन्यास कर रही है (चित्र क) । एक दूसरे स्तंभ में, जो अब राष्ट्रीय संग्रहालय में है, दो सिंहोंवाले एक पादपीठ के ऊपर एक नारी - आकृति प्रायः नृत्य - मुद्रा में खड़ी हुई है, उसके वाम हस्त में एक खड्ग है और दक्षिण हस्त से वह अपने सिर के ऊपर एक कदम्ब-पुष्पगुच्छ का स्पर्श कर रही है ( चित्र ८ ख ) । तीसरे स्तंभ पर ( यह भी ब संग्रहालय में है) एक नारी, जो तीन-चौथाई पार्श्वदृश्य में चित्रित है, अपनी कटि को झुकाये हुए ऊपर की चट्टानों से झरते हुए जलप्रपात के नीचे स्नान कर रही है (चित्र८) । सोपान की वेदिकाओं पर उत्कीर्ण शिल्पांकन भी कलात्मक दृष्टि से इतने ही उत्कृष्ट हैं । एक स्तंभ पर ( चित्रक), जिसका शीर्ष तिरछा है और जिसपर एक चूल है ( पु० सं० म०, १४. ३६९) तथा जो कुषाणयुगीन माना गया था, अशोक वृक्ष के नीचे एक नारी का अंकन है जो ऊपर उठे हुए अपने वाम हस्त पर एक थाली रखे हुए है जिसमें कुछ वस्तुएं रखी हैं और जिसपर शंकु के आकार का ढक्कन लगा हुआ है । नारी अपने दक्षिण हस्त में एक मूँठवाला पात्र पकड़े हुए है जिसका तल ऊंचा है । इसके पृष्ठभाग में पूर्ण और अर्ध-कमलयुक्त कला-पिण्ड उत्कीर्ण हैं जिनके मध्य स्थान में तीन स्तर हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्वोक्त दो प्रयाग-पटों ( पु० सं० म०, क्यू-२ तथा रा० सं० ल०, जे - २५५) पर उत्कीर्ण शिल्पांकनों में कनिष्क - पूर्व युग के प्रवेशद्वारों का यथार्थ अंकन किया गया है, स्तूपों के तोरणों के अनेक खण्डित भाग प्राप्त हुए थे । प्राचीन तोरण- सरदलों में से एक सरदल रा० सं० ल०, जे-५३५ है, जो संभवतया ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का है । यह निचले सरदल का मध्य भाग था जो किचित् वक्राकार है । इसके पुरोभाग में एक स्तूप उत्कीर्ण है जिसकी दो सुपर्ण (अर्ध- मानव तथा अर्ध - पक्षी) एवं पाँच किन्नर पूजा कर रहे हैं और अपने हाथों में विविध प्रकार से एक पुष्पमाल, पुष्पमालाओं युक्त पुष्पपात्र, नीलकमलगुच्छ और एक कमल ग्रहण किये हुए हैं ( चित्र २ क ) । पंखधारी प्राकृतियाँ तो असीरियाई तथा फारसी मूर्तिकलाओं में पायी जानेवाली ऐसी ही आकृतियों का स्मरण कराती हैं, किन्तु किन्नर अनुमानतः यूनानी आदिरूपों से प्रेरित होकर बनाये गये हैं । पृष्ठभाग में (चित्र २ ख ) भक्तों की एक सोत्साह धर्मयात्रा का चित्रण है। भक्तों में से दो हाथी पर और तीन अश्वों पर आरूढ़ हैं, दो पदयात्री हैं तथा अनेकों एक बैलगाड़ी में हैं और संभवता वे इस स्तूप के दर्शनों के लिए ही जा रहे हैं । पशु, जो अपनी जीवनी-शक्ति के लिए विख्यात हैं, अत्यन्त सजीव प्रतीत होते हैं; विशेषकर, स्फूर्तिवान अश्वों का सजीव अंकन कलाकार की उत्कृष्ट दक्षता की ओर संकेत करता है । भीतर के मध्यभाग में एक कमल-गुच्छ उत्कीर्ण है । रा० सं० ल०, जे-५४४ ( चित्र क, ख ) एक अन्य तोरण-सरदल है । यह सरदल अनुप्रस्थ है तथा पूर्वोक्त सरदलों से कुछ परवर्ती प्रतीत होता है। इसके केन्द्रीय भाग में सम्मोहक सौंदर्य तथा Jain Education International 62 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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