________________
धर्मकथानुयोग-विषय-सूची
२७ गौशालक की तेजोलेश्या सिद्धि
- -
२८
२९ गौशालक का ईर्ष्याभाव
३०
३१
३२
३३
३४
३५
३६ गौशालक ने सर्वानुभूति मुनि को भस्म कर दिया
३७ गौशालक ने सुनक्षत्र मुनि को भी मार दिया
2 2 2 3 3
३८
भ. महावीर ने गौशालक को हितशिक्षा के वचन कड़े
३९ क्रुद्ध गौशालक द्वारा फेंकी गई निष्फल तेजोलेश्या ने गौशालक को ही जलाया
४२
भ. महावीर कथित गौशालक का अजिनत्व
४० गौशालक और भ. महावीर ने परस्पर एक दूसरे की मरणकाल मर्यादा का निरूपण किया ४१ श्रावस्ती के लोगों में चर्चा
४३
**
गौशालक का आनन्द स्थविर के समक्ष अर्थलुब्धवणिक का दृष्टांत कहकर आक्रोश दिखाना आनन्द स्थविर का भगवान के समक्ष गौशालक के वचनों का कथन और भगवान का किया हुआ समाधान
भ. महावीर ने गौशालक को छेड़ने का निषेध किया
गौशालक का भगवान के प्रति आक्रोश वचन कहकर स्वसिद्धान्त निरूपण करना
भ. महावीर ने गौशालक के वचनों का प्रतिकार किया भगवान के प्रति गौशालक का पुनः आक्रोश
४५
(४१)
भगवान ने गौशालक की तेजोलेश्या का सामर्थ्य और गौशालक का सिद्धान्त कहा
४६ आजीविक स्थविरों ने "अयंपुल" को आजीविक उपासक रूप में स्थिर किया अयंपुल
५४
५५
भगवान के कहने से गौशालक से प्रश्न किये
गौशालक का पृथक संघ
तेजोलेश्या के दाह से पीड़ित गौशालक ने मद्यपान आदि किये
अजीविकोपासक हो गया
४७ गौशालक का अपने मरने के बाद निहरण के सम्बन्ध में निर्देश
४८ गौशालक का सम्यक्त्व परिणाम-पूर्वक कालधर्म
४९ गौशालक का निहरण
५०
भगवान् के देह में रोग के आतंक का प्रादुर्भाव ५१ सिमुनि का मानसिक दुःख
५२ भगवान् ने सहमति को आश्वासन दिया
५३
सिंहमुनि रेवती के घर से भैषज्य लाया
भगवान् का आरोग्य
सर्वानुभूति और सुनक्षत्रमुनि की देवलोक में उत्पत्ति और सिद्धगति प्राप्त होने का निरूपण
गौशालक के जीव की देवलोक में उत्पत्ति
५६
५७ गौशालक का महापद्मभव में जन्म और राज्याभिषेक ५८ महापद्म के देवसेन और विमलवाहन ये दो नाम ५९ विमलवाहन का निर्ग्रन्थों के प्रतिकूल आचरण ६० विमलवान ने सुमंगल अणगार को उपसर्ग किया
६१ सुमंगल मुनि की तेजोलेश्या से विमलवाहन का मरण
६२ सुमंगल मुनि की देवगति और पश्चात् सिद्धगति निरूपण
७३ गौशालक जीव विमलवाहन के अनेक दुःख प्रचुर भव और बाद में देव भव
६४ गौशालक जीव के दृढ़प्रतिज्ञ भव से सिद्धगति का निरूपण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
सूर्याक
६९
७०
७१ ७२-७४
७५
७६
७७
७८
७९
८०
८१
८२
८३
८४
८५
८६
८७
८८
८९
९०-९३
९४
९५
९६
९७
९८
९९-१००
१०१-१०४
१०५ १०६-१०७
१०८
१०९
११०-१११
११२
११३
११४
११५
११६
११७
पृष्ठांक
४००
४००
४००
४०१-४०२
४०२-४०३
४०३
४०३-४०५
४०५
४०५
४०५-४०६
४०६
४०६
४०६
४०६
४०६
४०७
४०७
४०७
४०७-४०८
४०८
४०९-४१०
४१०
४१०
४१०-४११
४११
४११ ४११-४१२
४१२
४१२
४१३
४१३
४१४
४१४
४१४-४१५
११५
४१५
४१५-४१८
४१८
www.jainelibrary.org