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________________ उपदेशामृत हे प्रभु! आपके वचनोंको धन्य है! हे माई-बाप! आपका आधार है। हे प्रभु! आपके अमृततुल्य वचनोंका इस रंकको योग मिला, जिससे हे प्रभु! थोड़ी शान्ति हुई। अन्यथा हे नाथ! मेरी कोई गति नहीं थी। हे प्रभु! आपकी शरण भव-भवमें प्राप्त हो । हे नाथ! निराधारके आधार, हे प्रभु! जब एक आपकी शरण ग्रहण करता हूँ तब संकल्प-विकल्प बंद होते हैं, और उससे परम शांति मिलती है। जिससे वैरी मात्रका नाश होता है और तब मुझे अच्छा लगता है। जब द्वन्द्वपूर्ण वृत्तियोंमें मुझे कुछ चैन नहीं पड़ती तब एक ध्यानसे प्रभुकी शरण ग्रहण करता हूँ, तो सुख प्राप्त होता है। फिर जब चित्त भी भटकता होता है तब भी एक प्रभुकी शरण जितनी देर स्मृतिमें रहती है उतनी देर आनन्द रहता है। फिर कषायादि जो विषाद किसी वचनके सुननेसे उठता हो और भुलाया न जाता हो तथा खेद होता हो, उसका उपाय भी हे प्रभु! जब एकाग्रतासे प्रभुमें चित्त लगाता हूँ तब शान्ति होती है। हे नाथ! ऐसी अपूर्व वस्तु आपने मुझे दी है। हे नाथ! उसके बिना मेरी किसी प्रकार रक्षा नहीं होती। भव-भवमें आपकी शरण हो, प्रभु आपकी । यही विनती है। श्रावण वदी ५, बुध, १९५३ श्री प्रगट सद्गुरु देव सहजात्मस्वरूप, त्रिकाल नमस्कार! इस संसारके प्रसंगमें मोहममत्व द्वारा व्यवहारमें आसक्त वृत्तिको अटकानेवाला, पाँच इन्द्रियोंके विषयोंको रोकनेवाला, कषायोंके मन्द होनेका हेतु, एक मात्र सत्पुरुषके उपदेशसे प्राप्त बोध परम कल्याणकारी है। जब तक यह जीव उस सद्बोध और सद्गुरु-कथित सत्शास्त्रोंका अवगाहन नहीं करता तब तक उसको बाह्य वृत्ति रहती है। ॐ करमाला, जि.सोलापुर (चातुर्मास)सं.१९५८ तत् सत् श्रीमद् परम वीतराग सद्गुरुदेवको नमोनमः मुनिश्री लक्ष्मीचंदजी आदि मुनिवरोंके प्रति, अत्र स्थित मुनिश्री आदिके यथायोग्य नमस्कार प्राप्त हों। मुनिश्री देवकीर्णजीके देहत्याग होनेके समाचार तारसे जानकर खेद हुआ है। और आपको भी खेद होना संभव है। मुनिवर श्री देवकीर्णजी आत्मार्थी, मोक्षाभिलाषी थे। उन्हें आत्मस्वरूपका लक्ष्य करनेकी इच्छा थी, वह गुरुगमसे प्राप्त हुई थी। और अशुभ वृत्तिका अभाव करके शुभ वृत्ति रखनेमें पुरुषार्थ करनेकी इच्छाको वे लक्ष्यमें रखते थे। धन्य है ऐसे आत्माको! आत्मपरिणामी होकर विचरण करनेवाले उस आत्माके प्रति नमस्कार हो! नमस्कार हो! दूसरे, परम सत् वीतराग गुरुदेवकी तो यह आज्ञा है कि हे आर्य! अन्तर्मुख होनेका अभ्यास करो, अन्तवृत्ति करो। “देहके प्रति जैसा वस्त्रका संबंध है वैसा आत्माके प्रति देहका संबंध जिसने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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