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श्रीमद् लघुराजस्वामी (प्रभुश्री)
उपदेशामृत
पत्रावलि-१
चैत्र सुदी ६, सोम, १९५१
उन पूर्णानन्दी महात्माको त्रिकाल नमस्कार! हे भगवान! इस दास पर अत्यंत दया कर अपूर्व मंत्र बताकर सारे जगतको भ्रम बताया, वह ऐसा तो असर कर गया है कि मेरे उन प्रभुने-गुरुने जो कहा है वही सत् है। इसलिए मुझे अन्य किसीपर श्रद्धा होती ही नहीं है। एक प्रभु-सच्चे हरि प्रभु-में भिन्नभाव नहीं है, गुरु-परमात्मामें भिन्नभाव नहीं है। उनके बिना सारा दृश्य जगत भ्रम है, अतः हे प्रभु, यदि इस बालकको कहने योग्य कोई बात हो तो आप उसे लिखकर बतानेकी कृपा करेंगे, क्यों कि अन्य किसीका कहा हुआ या अन्य किसीसे सुना हुआ मेरे अन्तःकरणमें नहीं उतरता। आप जो लिखेंगे और कहेंगे वह बात सत् है, वह कथन सही है। इससे मुझे विश्रान्ति मिलती है। मुझे अनुभवसे यदि खरा लगे तो भी यों रहा करता है कि प्रभु स्वीकारें और कहें कि यह इस प्रकार है, तब शान्ति होती है अन्यथा चित्त विकल्पमें रहता है।
हे प्रभु! इस समय तो मुझे आपके वचनामृतका ही सच्चा आसरा है। आपका उपदिष्ट बोध स्मृतिमें आता है और आपकी ही शरण है। वैसे हे प्रभु, यदि मुझे आपके बोध और मार्गका भान न होता तो इस संसारसमुद्रमें भटक मरता, गोते लगाता रहता। धन्य है हे प्रभु! आपकी पवित्रताको कि इस रंक किंकरका उद्धार किया। आपकी शरणसे ही मुझे विश्रान्ति प्राप्त होगी।
कार्तिक सुदी ५, बुध, १९५२ श्री कृपालुनाथको त्रिकाल नमस्कार! हे प्रभु! 'छह पद'की देशना दी वह मैंने कण्ठस्थ कर ली है, और प्रतिदिन उसके लिए यथासम्भव पुरुषार्थ करूँगा। पर हे नाथ! मैं ज्यों ही पुरुषार्थ करना प्रारम्भ करता हूँ त्यों ही वहाँ बखेड़ा खड़ा हो जाता है। कुछ कुछ संकल्प-विकल्प आते हैं उन्हें निकालता हूँ। रात-दिन हमेशा संग्राम चलता है। फिर दोष देखता हूँ। प्रभु, मैं झगड़ा मचा रहा हूँ। इधरसे उधर और उधरसे इधर परिणामोंको कुरेद रहा हूँ; परंतु फिर उधरसे नये प्रविष्ट हो जाते हैं। पुनः उनका सामना करके तिरस्कार करता हूँ तब वे भाग जाते हैं।
* ये प्रथम तीन पत्र श्रीमद् लघुराज स्वामी द्वारा श्रीमद् राजचंद्रको लिखे गये पत्रोंमेंसे लिये हैं।
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