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पत्रावलि-१ यथातथ्य देखा है, म्यानके प्रति तलवारका जैसा संबंध है, वैसा ही जिसने देहके प्रति आत्माका संबंध देखा है, अबद्ध स्पष्ट आत्माका जिसने अनुभव किया है, उन महापुरुषोंको जीवन और मरण दोनों समान हैं।" उन सत्पुरुषोंको नमस्कार हो! नमस्कार हो! “सम्यक् प्रकारसे वेदना सहन करनेरूप परम धर्म परम पुरुषोंने कहा है। तीक्ष्ण वेदनाका अनुभव करते हुए स्वरूपभ्रंश वृत्ति न हो यही शुद्ध चारित्रका मार्ग है। उपशम ही जिस ज्ञानका मूल है उस ज्ञानमें तीक्ष्ण वेदना परम निर्जरारूप भासने योग्य है।"
मुनि देवकीर्णजीको प्रबल वेदनी कर्म भोगते हुए, मरणांतिक उपसर्ग जैसे अवसर पर भी समताभाव रखनेसे कर्मनिर्जरा हुई है। क्या वे उस अवसरपर या अन्तिम समयमें कुछ बोले थे? सूचित करें। मुनि लक्ष्मीचंदजी आदि मुनिवरोंको उन मुनिश्रीका समागम संयममें सहायकारी था, वैराग्य-त्यागकी वृद्धि में कारणभूत था। हमें भी उसी कारणसे खेद होता है, पर अब वह खेद करना योग्य नहीं है। हमें और आपको एक सद्गुरुका आधार है, उन्हींकी शरण है। उस परम सत्संग, परम सत्की शरणसे आत्माको देहसे भिन्न जानकर स्वरूपस्थित होना योग्य है। इसीलिए इस मनुष्यदेहमें जन्म सफल करनेका, अपना उद्धार करनेका अवसर आया है।
भगवानने ऐसा योग मिलना दुर्लभमें दुर्लभ कहा है, सो भूलने जैसा नहीं है। हम इस देशमें आये तब बहुत सोच-समझकर ही मुनि देवकीर्णजीको आपके समागममें छोड़कर आये थे, जिससे कि आपको किसी प्रकारका खेद न हो, और हमें थोड़े समय निवृत्ति क्षेत्रमें विचरना था, उसमें उदय बलवान कि हमारी भी कल्पनासे बाहर इस देशमें आना हुआ है। यह भवितव्यतानुसार हुआ। इतनेमें आप और हमसे उन मुनिश्रीका वियोग हुआ। यह सोचकर अब खेद नहीं करना चाहिए, क्योंकि मरण तो प्रत्येक प्राणीको आता है। हमें भी ऐसा दिन आनेसे पहले सावधान होने जैसा है। प्राणीमात्र सभी अपने-अपने शुभाशुभ कर्मानुसार गति-आगति करते हैं। ऐसा जानकर हमें देहका भरोसा करने योग्य नहीं है। नाशवंत देहका विश्वास रखने जैसा नहीं है। यह देह किसी कामकी नहीं है। किसी संतपुरुषके योगसे एक सेवाभक्ति हो सके तो कल्याणकारी है। इस जीवने देहके कारण, देहके लिए अनन्तकाल तक आत्माको बिताया है, परंतु आत्माके लिए इस देहको बिताये तो परम कल्याण हो, सहज ही आत्मज्ञान सुलभ हो । अनादिका जो अज्ञान है उसके नाश होनेका अवसर आया है। किन्तु इस जीवकी मूढ़ताको धिक्कार है! अत्यंत खेदजनक है। सब भूल जाने जैसा है। उस धर्मका नाश नहीं हुआ है, अतीत, अनागत और वर्तमानमें वैसा नहीं हुआ है। जो नाशवंत है उसे देर-सबेर छोड़ना ही है। हमें भी बैठे नहीं रहना है। एक दिन आगे-पीछे चले जाना है ऐसा जानकर, खेद करना उचित नहीं है। हे मुनिवरों! आपको जो खेद मुनि देवकीर्णजीके वियोगका है उस खेदको त्याग-वैराग्यमें लगाना योग्य है। तथा मरणको सदा स्मृतिमें रखकर क्षणभर भी भूलने जैसा नहीं है ऐसा ज्ञानी सत्पुरुषका कथन है यों समझकर प्रमादको छोड़, भक्ति वैराग्य और शास्त्रका पठन, विचार एवं अवलोकन कर ध्यानमें लेना उचित है। जिसके द्वारा परभाव विस्मृत हो वह कर्तव्य है। साथ ही रसादिका त्याग करना योग्य है। हे मुनिवरों! महात्मा पुरुर्षोंने कहा है वह याद करने जैसा है कि
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