________________
[८५]
__एक बार सेठ श्री जेसंगभाईने कहा, “प्रभु! बालकोंको प्रसाद मिलता है और हमारी प्रसादी बंद हो गयी।"
प्रभुश्रीने हाथके संकेतसे कहा कि 'बंद नहीं हुई'। फिर वे बोले_ "छोटे बड़े सब आत्मा हैं । स्थान-स्थानपर एक आत्मा ही देखना है। अंजन होना चाहिए, पर कौन सुनता है? कौन ध्यान देता है ? किसे कहें ? किसीको ही कहा जा सकता है।"
स्वास्थ्य इतना नरम होनेपर भी और सबके मना करनेपर भी क्षेत्रस्पर्शना या उदयवशात् प्रभुश्री चैत्रमें एक सप्ताहके लिए नासिक पधारे थे। वहाँसे चैत्र सुदी ९ को वापस आश्रममें लौटे।
प्रभुश्रीने सहज करुणाशील स्वभावसे परमकृपालुदेव द्वारा उद्धरित मार्गको आश्रमकी स्थापना कर मूर्त स्थायी स्वरूप दे दिया था। अपना वह कार्य पूरा कर मानो जीवनलीलाको समेट लेना चाहते हों इस प्रकार वे सं.१९९२ के चैत्र वदी ५ के पवित्र दिन मार्गको सौंपते हैं
"यह सब आश्रमखाता है, सेठ चुनीभाई, मणिभाई-दालके साथ ढोकली। कहा नहीं जा सकता। मणिभाई, सेठ, ब्रह्मचारी बहुत समय बाद, यद्यपि शरीर है तब तक कुछ कहा नहीं जा सकता, पर मुख्य ब्रह्मचारीको सौंपना है। (ब्रह्मचारीजीसे) कृपालुदेवके समक्ष जाना । प्रदक्षिणा कर, स्मरण लेने आये तो गंभीरतासे ध्यान रखकर लक्ष्य रखना, पूछना। कृपालुदेवकी आज्ञासे और शरणसे आज्ञा मान्य कराना।"
प्रभुश्रीने श्री ब्रह्मचारीजीको पुनः व्यक्तिगतरूपसे भी इस ‘सौंपने के संबंधमें बताया उस समय "प्रभुश्रीकी वीतरागता, असंगता, उनकी मुखमुद्रा, आँख आदिके फेरफारसे स्पष्ट झलक रही थी मानो वे बोल नहीं रहे हैं, पर दिव्यध्वनिके वर्णनके समान हम सुन रहे हैं ऐसा लगता था : 'मंत्र देना; बीस दोहे, यमनियम, क्षमापनाका पाठ, सात व्यसन, सात अभक्ष्य बताना । तुम्हें धर्म सौंपता हूँ।" (श्री ब्रह्मचारीजीकी संस्मरणपोथी)
फिर चैत्र वदी ६ के दिन प्रभुश्रीजी फरमाते हैं“आत्माका मृत्युमहोत्सव है, एक मृत्युमहोत्सव है ।
विश्वभाव व्यापी तदपि, एक विमल चिद्रूप ।
ज्ञानानंद महेश्वरा, जयवंता जिनभूप ॥ एक आत्मा। अन्य कुछ नहीं। उसका महोत्सव । मृत्यु महोत्सव ।
सेठ, चुनीभाई, मणिभाई, सोभागभाई, परीख, (काठियावाडवाले) वनेचंद, मण्डल स्थापित किया है कृपालुदेवका । आत्मा धर्म-आज्ञामें धर्म । कृपालुदेवकी आज्ञा । ब्रह्मचारीको भी लिया। सबकी दृष्टिमें आवे वैसी प्रवृत्ति करें। आज्ञा, कृपालुदेवकी जो आज्ञा है सो। आणाए धम्मो आणाए तवो। मूलमार्ग सेठ, चुनीभाई, मणिभाई, परीख, वनेचंदको पकड़नेवाले मानता हूँ। बड़ोंको अच्छा लगे तो अन्यको लेनेका उनका अधिकार है। किसीको लेना न लेना, उसके अनुसार लेवें।
परम कृपालुदेवकी शरण ही मान्य है...सब एकतासे मिलकर रहें।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org